सत्ताधारी तबकों के लगातार प्रयास के बावजूद भौतिक रूप से भारत में मौजूद सामाजिक और आर्थिक असमानता ने आंबेडकर की प्रासंगिकता को कभी भी समाप्त नहीं होने दिया
मोहन आर्या

दुनियाभर में उत्पीड़ितों की मुक्ति के लिए राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर किए गए कार्यों में प्राय: कुछ आधारभूत सैद्धान्तिक सूत्र होते हैं जो या तो पूर्व में ही निर्धारित कर लिए जाते हैं अथवा किसी महान क्रांतिकारी व्यक्तित्व के भौतिक एवं बौद्धिक कार्यों के साथ धीरे-धीरे विकसित होते हैं. और उस व्यक्तित्त्व के पूरे काम के बड़े हिस्से को देखने पर ये सूत्र तलाशे जा सकते हैं. और इन्हें विशिष्ट नाम भी दिया जा सकता है.
अपनी मृत्यु के बाद धीरे-धीरे बाबासाहब भीम राव आंबेडकर का महत्व भारत में सत्ताधारी वर्गों के न चाहने के वावजूद भी लगातार बढ़ता चला गया. आंबेडकर भारत के सत्ताधारी तबकों को कितना नापसंद थे इस बात का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1956 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके समर्थक उनका शव का अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली से तत्कालीन बंबई ले जाना चाहते थे. इसके लिए जब सरकार से विमान की व्यवस्था की गुजारिश की गयी तो संबंधित एजेंसियों की राय की मांग की गयी. संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका और पूर्व (एवं पहला) विधि मंत्री होने के बावजूद भी सरकार की तरफ से निशुल्क विमान की व्यवस्था नहीं की गयी. अंततः सरकार ने मोलतोल किया और बाबासाहब गायकवाड़ (जो आंबेडकर के तात्कालिक राजनैतिक उत्तराधिकारी बने) के नेतृत्व वाले Scheduled Caste Improvement Trust ने किराए के आधे पैसों का भुगतान किया और विमान की व्यवस्था हो पाई.
सत्ताधारी तबकों के लगातार प्रयास के बावजूद भौतिक रूप से भारत में मौजूद सामाजिक और आर्थिक असमानता ने आंबेडकर की प्रासंगिकता को कभी भी समाप्त नहीं होने दिया और गुजरते वक़्त के साथ आंबेडकर के विचार और कृति जीवित आंबेडकर के तुलना में कहीं अधिक ताकतवर और प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं. बाबासाहब आंबेडकर को हम जिस वर्तमान रूप में जानते हैं उसके लिए दलित पैंथर आन्दोलन और अधिक महत्वपूर्ण तौर पर कांशीराम के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता है.
आज स्थिति यह है कि राजनैतिक रूप से बाबासाहब के दुनियाभर में करोड़ो अनुयायी तो हैं ही, साथ ही दुनियाभर में अकादमिक स्तर पर बाबासाहब उन चंद नेताओं में से हैं जिन पर अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों/विद्वानों ने काम किया है और करने की इच्छा जतायी है. बाबासाहब से संपूर्ण बौद्धिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रयासों (धम्म परिवर्तन) को देखने पर एक स्पष्ट क्रमबद्धता और सैद्धांतिक मूल दिखाई देते हैं. अगर एक ही शब्द समूह में बाबासाहब के संपूर्ण चिंतन और कृतित्व को स्थान देना हो तो वह होगा- “सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र”.
सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र क्या है? इसे बाबासाहब ने अपने उस प्रसिद्ध भाषण में स्पष्ट किया जो उन्होंने प्रारूप समिति के अध्यक्ष के बतौर संविधान सभा में दिया था:
“26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों से भरे हुए दौर में प्रवेश करने जा रहे हैं जिसमें राजनैतिक जीवन में एक व्यक्ति और एक मत (वोट) के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे और सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य को नकारते रहेंगे. जितनी जल्दी हो सके हमें इन विरोधाभासों को समाप्त कर देना चाहिए अन्यथा असमानता से पीड़ित जनता उस संवैधानिक ढाँचे को उखाड़ फेकेंगे जिसे संविधान सभा ने इतनी मेहनत से तैयार किया है.”
“एक व्यक्ति एक मूल्य” यह वह लक्ष्य है जिसे आंबेडकर अपनी तमाम सक्रियताओं के जरिये प्राप्त करना चाहते थे. ये इतना विस्तृत लक्ष्य है कि पूरी दुनिया में इसे अब तक अपने आदर्श रूप में प्राप्त नहीं किया जा सका है. भारत जैसे देश और समाज जो कि जाति, लिंग, वर्ग के साथ ही और भी न जाने कितने किस्म के वर्चस्वों और असमानताओं का संजाल है, यहां यह लक्ष्य और भी दुरूह तथा अप्राप्य प्रतीत होता है. लेकिन बाबा साहब के पूरे काम को गौर से देखें तो अलग-अलग आयामों में सक्रियता और सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक कार्यवाहियों के जरिये वे इसी एक लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं.
जारी है…