लैंडलेस: जातिवाद और भूमिहीनता की कहानी

    यह फिल्म पंजाब के समाज में जातिवाद के मुद्दे की पड़ताल करती है

    अतुल आनंद

    फोटो: YouTube

    लैंडलेस (भूमिहीन) एक फीचर लेंथ डाक्यूमेंट्री फिल्म है. फ़िल्मकार रणदीप मद्दोके को इस फिल्म को बनाने में 5 साल का वक्त लगा है. फिल्म इसी साल रिलीज़ हुई है. फिल्म पंजाब के समाज में जातिवाद के मुद्दे की पड़ताल करती है. नई दिल्ली में इस फिल्म का प्रदर्शन पिछले महीने माता सुंदरी कॉलेज फॉर वीमेन के सभागार में हुआ था. यह सुखद बात लगी कि एक ऐसे कॉलेज में इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ जिसकी स्थापना सिख समुदाय ने की है. हालांकि फिल्म के प्रदर्शन के दौरान मुझे वहां सभागार में आए लोगों का फिल्म को लेकर एक दुराव का एहसास हुआ. उस वक़्त और भी निराशा हुई जब फिल्म खत्म होने के बाद समय की कमी होने की वजह बता फिल्मकार के साथ सवाल-जवाब का मौका नहीं दिया गया.

    फिल्म की शुरुआत वाइड एंगल शॉट्स से होती है. इस तरह के शॉट्स का इस्तेमाल पूरे फिल्म में कई जगह किया गया है. कई बार डाक्यूमेंट्री फ़िल्मकार वाइड एंगल शॉट्स का इस्तेमाल अपने फिल्म के किरदारों से दूरी बनाने के लिए करते हैं. ऐसा इस फिल्म में नहीं है. फिल्म में खासकर पंजाब के संगरूर को दिखाया गया है जहां दलित भूमिहीन खेतिहर मजदूर जमीन के अधिकार को लेकर आंदोलन करते रहे हैं. फिल्म यह बात सामने लाती है कि किसानों के लिए सरकारी योजनाओं के फायदे जमीन के मालिक जट्ट समुदाय के लोग अपने लिए रख लेते हैं और उसका फायदा खेत पर काम करने वाले मजदूरों को नहीं मिलता. फिल्म में यह संदेश काफी प्रभावी ढंग से उठाया गया है कि भूमिहीनों को कर्ज नहीं मिलता. जमींदार और जट्ट किसान कर्ज की वजह से आत्महत्या करते हैं जबकि एक भूमिहीन मजदूर कर्ज नहीं मिलने की वजह से आत्महत्या करता है.

    फिल्म पंजाब में जातिवाद और भूमिहीनता के रिश्ते को प्रभावी रूप से दिखाती है. संगरूर में दलित रामदसिया सिख और जट्ट सिख के गुरूद्वारे अलग-अलग हैं. जमीन के अधिकारों को लेकर आंदोलन करने की वजह से जट्ट सिख के गुरूद्वारे दलितों के खिलाफ धमकियां और सामाजिक बहिष्कार का ऐलान करते हैं. दलितों को राशन और दूध जैसे रोजमर्रा की चीजों को खरीदने-बेचने से रोका जाता है. इसकी इंतिहा दलितों पर हमले के रूप में होती है. इस अत्याचार में पूरा समाज शामिल है. फिल्म एक किरदार के माध्यम से बताती है कि सिख धर्म में पीढ़ियों बीत जाने के बावजूद भी लोगों की जातियां नहीं मिटी.

    फिल्म के दलित किरदार अक्सर यह बताते देखे जाते हैं कि खेतों पर काम करने वाले दलित मजदूरों को जो मेहनताना मिलता है वह यूपी और बिहार से आने वाले प्रवासी मजदूरों से बस थोड़ा बेहतर है. एक खेतिहर मजदूर महिला बोलती है, “जब हम बेहतर मेहनताना की मांग करते हैं तो वे (जमीन के मालिक) बिहारियों को खेत पर काम करने के लिए ले आते हैं.” ऐसा देखा गया है कि पंजाब में काम करने वाले अधिकतर प्रवासी मजदूर दलित-बहुजन पृष्ठभूमि से होते हैं. अगर जब पंजाब का समाज अपने ही वंचित तबके से अच्छा बर्ताव नहीं करता तब उनसे प्रवासी मजदूरों के लिए बेहतर बर्ताव की उम्मीद कैसे की जा सकती है? फिल्म में दिखाया गया है कि दलितों पर अत्याचार का कोई अंत नहीं है. यहां तक कि जब दलित जंगलों से लकड़ी चुनने जाते है तो जट्ट फारेस्ट गार्ड्स को खबर कर देते है ताकि दलित जंगलों से लकड़ियां न ले पाएं.

    फिल्म ने जातिवाद और जेंडर के रिश्ते को भी दिखाया है. सवर्ण औरत और मर्द दलितों के खिलाफ अत्याचार में समान रूप से भागीदार रहे हैं. भूमि अधिकार को लेकर विरोध-प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा में दलित घायल हुए तो अस्पतालों के सवर्ण स्टाफ, डॉक्टरों और नर्सों ने वहां भी उनके साथ भेदभाव और बुरा बर्ताव किया. वहीं दूसरी ओर जाति व्यवस्था की वजह से जट्ट औरतें घर से बाहर काम नहीं कर सकतीं. यह फिल्म मर्दवादी पंजाबी गीतों जो औरतों की आजादी के खिलाफ हैं, उन पर भी बात करती है. फिल्म इस सबटेक्स्ट के साथ खत्म होती है कि अगर दलितों को भूमि अधिकार मिले तो एक बेहतर समाज बनेगा जहां पर मजदूरों पर अत्याचार नहीं होंगे.