नेतन्याहू की जीत से फ़लीस्तीन और पश्चिमी एशिया के हालात क्यों हो सकते हैं विस्फोटक

    नेतन्याहू ने फलीस्तीन के वेस्ट बैंक को इजरायल में स्थायी रूप से मिला लेने का चुनावी वादा किया है. अब इजरायल के चुनाव में उनकी जीत से इजरायल-फलीस्तीन के हालात और बिगड़ सकते हैं

    अली अबुश्बक

    (फोटो: कोबी गिदोन, आईडीएफ के लिए) – साभार, फेसबुक पेज, बेंजामिन नेतन्याहू

    हालिया चुनावों में अपनी जीत के साथ बेन्जामिन नेतन्याहू एक बार फिर क्नेसेट (इजरायली संसद) की अगुआई करने को तैयार हैं. ऐसे में फलीस्तीन का भविष्य अस्थिर और अंधकारयमय ही नजर आता है. इसमें कोई शक नहीं है कि यह फलीस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) और इजरायल के बीच रिश्तों को और ज्यादा खराब करेगा. संघर्ष बढ़ेगा और फलीस्तीन के भविष्य और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को लेकर कोई ठोस बातचीत नहीं हो पाएगी. फलीस्तीनी क्षेत्र में लोग इजरायल के हालिया चुनाव के नतीजों को बहुत सावधानीपूर्वक देख रहे हैं, वहीं बाकी लोग समझ पाने की स्थिति में नहीं हैं. नेतन्याहू की जीत ने फलीस्तीन की जनता को हिला कर रख दिया है क्योंकि नेतन्याहू ने वेस्ट बैंक को इजरायल में स्थायी रूप से मिला लेने का चुनावी वादा किया है. यह स्थायी कब्जे की ओर इजरायल के बढ़ने का एक कदम है. यह इजरायल-फलीस्तीन की समस्या को और ज्यादा बढ़ाएगा क्योंकि यह कदम फलीस्तीन के लोगों के अपने गृहक्षेत्र में रहने के अधिकार का उल्लंघन करेगा.

    इसके अलावा नेतन्याहू का पांचवां कार्यकाल उन्हें और अधिक ताकतवर बनाएगा. इसका मतलब है कि इजरायल के लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर होंगे और बातचीत की प्रक्रिया और बाधित होगी. उग्र दक्षिणपंथ के उदय तथा यहूदी सत्ता में उसके और ज्यादा ताकतवर पकड़ ने इजरायल में वामपंथ को बर्बाद कर दिया है, जो फलीस्तीन के साथ शांतिपूर्ण बातचीत में विश्वास करते हैं.

    यह देखना दिलचस्प है कि फलीस्तीन में नेतृत्व के बिखराव ने असल में फलीस्तीन के मूल अस्तित्व के खिलाफ विमर्श खरड़ा करने में नेतन्याहू की मदद की है. फिलहाल ग़जा का क्षेत्र 2007 में सैन्य संघर्ष के बाद से ही हमास के कब्जे में है. इस्लामिक समूह हमास पर आतंकी समूह होने का लेबल चिपका दिया गया है. वहीं वेस्ट बैंक पर पीएलओ नेता और फलीस्तीनी राष्ट्रपति मोहम्मद अब्बास का शासन चलता है. इस गुटबाजी ने फलीस्तीनी जनता के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है. अब नेतन्याहू पर निर्भर है कि वे किससे बातचीत करेंगे- पीएलओ या फिर कथित आतंकी समूह से. इस तरह का विमर्श नेतन्याहू की व्यापक योजना का हिस्सा है. नेतन्याहू का उद्देश्य ग़जा क्षेत्र और पश्चिमी क्षेत्र (वेस्ट बैंक) को बांटना है और भविष्य की किसी भी बातचीत में फलीस्तीन के सवाल पर वे ऐसा ही रूख अपनाएंगे. और दोनों क्षेत्रों के बांटने की कोशिश साफ-साफ संयुक्त राष्ट्र के 1948 के दो-राष्ट्र के सिद्धांत के खिलाफ है.

    येरुशलेम को इजरायल की राजधानी के रूप में अमेरिकी मान्यता दिलाने में नेतन्याहू कामयाब रहे हैं और 14 मई, 2018 को येरूशलेम में अमेरिका ने अपना दूतावास भी खोल लिया. उम्मीद के मुताबिक, वेस्ट बैंक, येरुशलेम और ग़जा में इस फैसले के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन भी हुए और कम-से-कम 58 फलीस्तीनी नागरिकों की मौत हो गई. यह मामला थोड़ा ठंडा होता, उससे पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीरियाई गोलन पर इजरायल के आधिपत्य को मान्यता दे दी. हालांकि यह एकतरफा कदम है, लेकिन अमेरिका के इस बड़े फैसले ने इजरालय में नेतन्याहू के कद को बहुत बढ़ा दिया है, जिसकी स्पष्ट झलक चुनावी नतीजे में भी नजर आ जाती है.

    ये सारे बदलाव फलीस्तीनी नागरिकों के लिए बहुत प्रतिकूल हैं, वहीं ट्रंप प्रशासन ने इसे सदी का सबसे बड़ा समझौता (Deal of the Century) करार दिया है और कहा है कि इससे इजरायल-फलीस्तीन संघर्ष खत्म हो जाएगा. पर असल में यह एक आकर्षक जुमला भर है.

    हालांकि अब तक किसी समझौते का प्रस्ताव नहीं दिया गया है, लेकिन कई सारे अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे किसी भी दावे में कोई सच्चाई नहीं है. हालिया बदलावों को देखते हुए, संभावित प्रस्ताव ये हो सकते हैं: पहला, हरजाने के तौर पर इजरायल के बाहर रह रहे फलीस्तीनी नागरिकों के “वापसी के अधिकार” को खत्म कर देना; और दूसरा, फलीस्तीन के भूभाग को दोबारा निर्धारित करना. लेकिन इस तरह का कोई भी समझौता टिक नहीं पाएगा क्योंकि यह फलीस्तीनी नागरिकों के आत्म-निर्णय के अधिकार का उल्लंघन करता है.

    इस तरह नेतन्याहू की जीत निकट भविष्य में फलीस्तनी नागरिकों के लिए और ज्यादा चुनौतियां लेकर आएगा, जो “आत्म-निर्णय को अपना अहस्तांतरणीय अधिकार” मानते हैं. और वे मानते है कि 1948 में इजरायल ने उनके जिस फलीस्तीनी क्षेत्र पर कब्जा जमा लिया था, वहां लौटना उनका अधिकार है. जाहिर है, पश्चिमी एशिया के हालात विस्फोटक हो सकते हैं.

    (लेखक फ़लीस्तीनी रिसर्चर हैं और फ़िलहाल फ़लीस्तीन-इस्राएल संघर्ष और सोशल मीडिया पर रीसर्च कर रहे हैं।)