अररिया: लोकसभा चुनाव में कौन सा समीकरण पड़ा भारी?

    विडंबना है कि इस बेहद पिछड़े इलाके में विकास कोई मुद्दा बनता नहीं दिखा. भारत-नेपाल सीमा से सटा अररिया जिला स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के मामलों में वर्षों से पिछड़ेपन का दंश झेल रहा है.

    पंकज कुमार झा

    अररिया में साल 2015 के दौरान लालू की चुनावी रैली में आए लोग (फोटो: जहीब अजमल)

    लोकसभा चुनाव में बिहार में मीडिया ने भले बेगूसराय सीट को बेहद चर्चित बना डाला हो लेकिन उत्तर बिहार की तमाम सीटों में अररिया लोकसभा सीट को शुरू से ही राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है. भाजपा व राजद प्रत्याशी के बीच सीधी टक्कर वाली इस सीट पर तीसरे चरण में मतदान संपन्न हो चुका है. उत्तर बिहार में इसी एकमात्र सीट पर भाजपा ने इस बार चुनाव लड़ा. लगातार दो बार हार का मुंह देख चुके अपने पूर्व सांसद प्रदीप कुमार सिंह पर ही भाजपा ने तीसरी बार दांव लगाया है. यहां उनका सीधा मुकाबला सीमांचल के कद्दावार नेता दिवगंत सांसद मो. तसलीमुद्दीन के बेटे मो. सरफराज आलम से रहा. जोकीहाट विधानसभा सीट से तीन बार विधायक रह चुके सरफराज अपने पिता की मौत के बाद 2018 के लोकसभा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी प्रदीप सिंह को 61 हजार मतों के अंतर से शिकस्त दे चुके हैं.

    2011 की जनगणना के अनुसार अररिया जिले में हिंदूओं की आबादी करीब 57 प्रतिशत है तो मुसलमानों की आबादी लगभग 43 प्रतिशत है. क्षेत्र में अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 14 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जनजाति की संख्या लगभग 1 प्रतिशत है. एक अनुमान के मुताबिक, क्षेत्र में यादव मतदाता 6 प्रतिशत हैं. मतदाताओं के इस गणित में राजद का एमवाई समीकरण बिलकुल फिट बैठता था. इसी फार्मूले को ध्यान में रखते हुए 2014 के चुनाव में राजद ने क्षेत्र के कद्दावर नेता मो. तस्लीमुद्दीन को चुनाव मैदान में उतारा था. तस्लीमुद्दीन ने कुल 41 प्रतिशत वोट हासिल कर अपने विरोधियों को धाराशायी कर दिया था. साल 2014 के चुनाव में “मोदी लहर” के बीच भाजपा को यहां हार का मुंह देखना पड़ा था. क्षेत्र में मुस्लिम प्रतिनिधित्व के उभरने का यही दौर था. पहली बार राजद ने यहां से मुसलमान उम्मीदवार पर अपना दांव लगाया. तसलीमुद्दीन के रूप में यह प्रयोग बेहद सफल रहा. राजद ने इसे राजनीति के नये ट्रेंड के रूप में अपनाया.

    2018 के लोकसभा उपचुनाव में सरफराज आलम ने राजद के वोट प्रतिशत में इजाफा किया और लगभग 49 प्रतिशत वोट हासिल किए. जदयू के साथ गठबंधन में लड़ते हुए भाजपा उम्मीदवार प्रदीप सिंह ने भी भाजपा के पिछले प्रदर्शन को सुधारा और लगभग 43 प्रतिशत वोट हासिल किया. उपचुनाव में इन दो उम्मीदवारों के बीच यह 6 प्रतिशत वोटों का अंतर बहुत ज्यादा नहीं है. ऐसे में इस बार क्या गुल खिलता है, देखना बाकी हैं. हालांकि राजद का एमवाई समीकरण इस चुनाव में भी जुड़ता दिखा है.

    विडंबना है कि इस बेहद पिछड़े इलाके में विकास चुनाव का मुद्दा बनता नहीं दिखा. भारत-नेपाल सीमा से सटा अररिया जिला स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के मामलों में वर्षों से पिछड़ेपन का दंश झेल रहा है. तकनीकी शिक्षण संस्थान, बड़े उद्योग धंधे के अभाव में शिक्षा और रोजगार के लिए पलायन लोगों की मज़बूरी है तो बाढ़-सुखाड़ जैसी समस्या से कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. इसके बावजूद क्षेत्र के विकास का मुद्दा चुनाव में मुखर नहीं हो सका. दरअसल आम चुनाव 2019 की पृष्ठभूमि एक साल पहले हुए उपचुनाव से ही तय होने लगी थी. उपचुनाव के दौरान भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ने सरफराज की जीत पर क्षेत्र के आईएसआईएस का गढ़ बन जाने का विवादित बयान दिया था. मकसद हिंदू वोटरों को गोलबंद करने की कोशिश थी. उस वक्त उनका दांव असफल रहा. इससे क्षेत्र में भाजपा के सांप्रदायिक मुहीम का पता चलता है. 2018 के उपचुनाव के बाद सरफराज आलम के समर्थकों पर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाने का आरोप लगा. प्रदीप सिंह ने तब इस मामले को जोरशोर से उठाया था. हालांकि, बाद में उस वीडियो के प्रमाणिकता पर सवाल उठे. राजद अध्यक्ष और पूर्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अपनी चुनावी रैलियों में भाजपा के नाकामियों को मुद्दा बनाया है. अब यह तो चुनाव परिणाम ही बता पाएँगे कि भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति अररिया में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर पायी या राजद का महागठबंधन अपने आधार को साथ रखने में कामयाब रहा.