यह कहना कि पार्टियां परिवारवाद के कारण हारी राजनीतिक सत्य से मुंह मोड़ना है. यह आंशिक सत्य हो सकता है. सत्य यह है कि परिवार और जाति ही ऐसे दलों की प्राणवायु है.
मनीष चांद

सत्रहवीं लोकसभा का चुनाव संपन्न हो गया है. मोदी दूसरी बार सरकार बनाने का दावा पेश कर चुके हैं. देश के सारे राजनीतिक पंडित अचंभित है कि यह कैसे हुआ. जिस आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में बीजेपी का नामोनिशान नहीं था वहां पर उसने जबरदस्त राजनीतिक सफलता हासिल की है. यह कैसे संभव हुआ? एक्जिट पोल से पहले तो बड़े से बड़े राजनीतिक पंडित को भी नहीं पता था कि इस तरह के चौंकानेवाले रिजल्ट आएंगे. 2014 से ज्यादा 2019 के रिजल्ट ज्यादा अप्रत्याशित और चौंकाने वाले हैं. लेकिन चौंकनेवाले में वे लोग शामिल नहीं हैं जो संघ या उसके परिवार से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं. उनका शुरू से ही मानना है कि अबकी बार बीजेपी 300+ सीटें लाएगी. वैसे कॉन्फिडेंट तो मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, उपेन्द्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और ममता बनर्जी को भी था कि वे लोग बुरी तरह बीजेपी को परास्त करेंगे. लेकिन उनका कॉन्फिडेंस बुरी तरह धराशायी हुआ. सारे अनुमान, आकलन और भविष्यवाणियां चित हो गईं. सोशल मीडिया के सारे राजनीतिक स्वयंसेवक सन्न. सबके लिए यह हार अप्रत्याशित थी. सब आत्ममुग्ध थे. अबकी बार बहुजन सरकार. लेकिन आ गई मोदी सरकार. आत्ममुग्धता की हालत यह है कि वे मानने के लिए तैयार ही नहीं की यह बहुजनवादी सिद्धांत की राजनीतिक और रणनीतिक हार है. वे हार ही नहीं सकते क्योंकि वे बहुजन हैं. उनकी संख्या ज्यादा है. सारे एससी, एसटी, ओबीसी, माइनॉरिटी उनके साथ हैं. जिसकी संख्या देश के कुल आबादी का 85% है. वह कैसे हार सकते हैं? इस तरह की आत्ममुग्धता में कुछ लोग जी रहे हैं वे अभी इस हार से सदमे में हैं. वे तरह-तरह के कांस्पिरेसी थिअरी गढ़ने में व्यस्त हैं. लेकिन यह उन्हें पता ही नहीं की जिस बहुजन समाज की वो बात करते हैं अभी वह ‘बहुजन समाज’ बना ही नहीं है. तैयार ही नहीं हुआ है. जो बहुजन समाज की बात करते है उनकी संख्या बहुत सीमित है. बहुसंख्यक समाज अभी भी जातियों और पार्टियों में बंटा है. समर्थक बुद्धिजीवी और सामाजिक स्वयंसेवक अपनी-अपनी जातियों के महत्वाकांक्षी नेताओं के पिट्ठू है. और क्रूर भाषा में कहें तो जाति अस्मिता के दुश्चक्र में फंसे वह पतंगा है जो दिये की लौ के इर्दगिर्द मंडराता है और अंत में उसी के तपिश से मर जाता है. अब वक्त आ गया है कि समाज के नौजवान, गरीब, बेरोजगार, किसान चिंतन करें कि आखिर कौन से फैक्टर हैं जो मोदी के हार को असंभव बनाते चले गए.
मोदी का सुप्रीमोवाद सभी पार्टियों के सुप्रीमो पर पड़ा भारी
बहुत सारे बुद्धिजीवी और राजनीतिक विश्लेषक का मानना है कि लालू परिवार का वंशवाद, मुलायम परिवार का वंशवाद, मायावती का अपने भतीजे आनंद का पार्टी के मंच पर स्थापित करना परिवारवाद को बढ़ावा देना था जिसे जनता ने नापसंद किया और इनसे अलग हो गई. यह भी एक फैक्टर है लेकिन उतना बड़ा फैक्टर नहीं है कि बुरी तरह हार का कारण बने. बिहार में यदि यह फैक्टर रहता तो रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान, भाई पशुपति पारस से लोग क्यों नाराज नहीं थे? उनको क्यों नहीं हराया? अश्विनी कुमार चौबे के बेटे से लोग क्यों नाराज नहीं थे? महाराष्ट्र में शिवसेना पूरी तरह वंशवादी पार्टी है. बालासाहेब ठाकरे की तो तीसरी पीढ़ी राजनीति में स्थापित होने के कगार पर है उनको लोगों ने क्यों नहीं हराया? तेलंगाना में वाईएसआर जगन रेड्डी अपनी पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. उड़ीसा में बीजू पटनायक अपनी परिवार की ही विरासत संभाल रहे हैं ,उन्हें क्यों नहीं लोगों ने हराया? यूपी में संघमित्रा मौर्य जीत गईं. तो यह कहना कि पार्टियां परिवारवाद के कारण हारी राजनीतिक सत्य से मुंह मोड़ना है. यह आंशिक सत्य हो सकता है. सत्य यह है कि परिवार और जाति ही ऐसे दलों की प्राणवायु हैं. अगर इनसे इनका परिवार और जाति छीन लिया जाय तो ये पार्टियां राजनीति में स्वत: निष्प्रभावी हो जाएगी. बीजेपी इस जाति आग्रह को जानती थी. उसने ऐसी रणनीति बनाई की इनसे इनकी जातियों को छोड़कर सभी जातियों को छीन लिया जाए. इस रणनीति में वह कामयाब रही. अपने सुप्रीमो मोदी की छवि उन्होंने ऐसी गढ़ी की वह अन्य पार्टियों के सुप्रीमो के छवि पर भारी पड़ा. मोदी गरीब है, मोदी पिछड़ा है, मोदी अतिपिछड़ा है, मोदी हिन्दू के लिए जान भी दे सकता है, मोदी पाकिस्तान को सबक सिखा सकता है, मोदी सारे देश का एकमात्र नेता है, मोदी विदेश में भी लोकप्रिय देश का पहला और एकलौता नेता है. मतलब मोदी के व्यक्तित्व में इतनी खूबियां गढ़ दी गईं कि विरोधी दल के नेता क्षेत्रीय और कमजोर लगने लगे. मोदी के सामने तो बिल्कुल बौना लगे, देश संभालने में अक्षम. इस छवि निर्माण में संघ और उनके परिवार के साथ और एक परिवार जुड़ा हुआ था. जिसको हम भारतीय संघी मीडिया परिवार कह सकते हैं. वह कदम से कदम मिलाकर संघ के साथ चल रहा था. इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए. करीब दशकों से रूसी राष्ट्रपति पुतिन इसी मीडिया मैनेजमेंट के द्वारा लोकप्रियता की राजनीति करते हुए सत्ता बरकरार रखे हुए हैं. इसलिए ब्रिटिश अख़बार द गार्जियन को अपने संपादकीय में लिखने को मजबूर होना पड़ा कि विश्व को पुतिन की तरह एक और नेशनलिस्ट पॉपुलिस्ट यानी लोकप्रिय राष्ट्रवादी नेता नहीं चाहिए.
मुद्दों का अभाव
देश के चुनाव से पहले एनडीए एंटी-इंकैंबंसी से जूझ रही थी. चाहे नोटेबंदी का मुद्दा हो, जीएसटी का मुद्दा हो, रोजगार के मसले पर सरकार बुरी तरह घिरी थी. पांच साल में हुए मॉब लिंचिंग, दलित वर्ग पर अत्याचार के मुद्दे से सरकार ध्यान भटकना चाह रही थी. बैंक एनपीए से जूझ रहे थे, जनता महंगाई से. कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं थी जो बीजेपी के पक्ष में हो. टीवी डिबेट में संघ परिवार के प्रवक्ता डिफेंसिव थे. कांग्रेस की बांछे खिली हुई थी. मीडिया के संघी धुरंधरों को नहीं सूझ रहा था कि सरकार को कैसे डिफेंड किया जाय. कांग्रेस इतना उत्साहित थी कि उसने राफेल को मुद्दा बनाया. कांग्रेस रणनीतिकारों ने खुद के अर्जित अनुभव से निष्कर्ष निकाला कि जिस तरह राजीव गांधी बोफोर्स में घिर कर हार गए थे, मोदी को उसी टैक्टिस से हराया जा सकता है. राहुल ने नारा गढ़ा ‘चौकीदार चोर’ है. नारा लोकप्रिय भी हुआ. लेकिन तब तक बालाकोट स्ट्राइक हो गया था. अब सारे चोर चौकीदार हो गए. बीजेपी ने नरेटिव चेंज कर दिया था. बीजेपी ने मुद्दाविहीन माहौल बनाया और अपने लिए इस मुद्दाविहीन माहौल को कवच बना लिया. बीजेपी एवं कांग्रेस की ऐसी बाइनरी तैयार की मुद्दा बाप-नाना-नानी से होकर मां-बहन की गाली तक नीचे गया. गैर कांग्रेसी और गैर बीजेपी दल इस बाइनरी में किंकर्तव्यविमूढ़ थे. उन्होंने अपना कोई नरेटिव ही नहीं गढ़ा. वे अपने अपने गढ़ में अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में व्यस्त थे. जब आपके पास कोई मुद्दा नहीं रहेगा, जीतने के लिए कोई नरेटिव नहीं रहेगा तो आपकी जीत संदिग्ध रहेगी. आपने कोई मुद्दा नहीं खड़ा किया, बस इस भरोसे बैठे रहे कि बीजेपी की असफलता से उब कर लोग आपको जिता देंगे. इस विचारशून्यता का बीजेपी ने भरपूर लाभ उठाया.
क्या बीजेपी की जीत जाति निरपेक्ष है और राष्ट्रवाद की जीत है?
बार-बार देश के बुद्धिजीवियों द्वारा स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि मोदी की जीत जाति निरपेक्ष है क्योंकि लोगों ने जातियों से ऊपर उठकर मोदी जी का समर्थन किया है. यह सर्वथा गलत आकलन है. भारत में राष्ट्रवाद की भी जाति है. जिस राष्ट्रवाद की बात बीजेपी करती है वह राष्ट्रवाद नहीं जाति वर्चस्व है अर्थात जाति वर्चस्व ही उनका राष्ट्रवाद है. एक के ऊपर एक जातियां तह की तरह सजी रहें और जातियां उसी में अपना गौरव समझे यही उनका राष्ट्रवाद और देशभक्ति है. इस चुनाव में जाति गौरव और जाति पूर्वाग्रह को बीजेपी ने बूथ लेवल तक भुनाया. कौन कह सकता है कि मोदी जाति निरपक्ष हैं. जाति निरपेक्ष रहते तो खुद को अतिपिछड़ा और उत्तर भारत में तेली बताते फिरते? आपके आंख पर कोई अगर पट्टी बांध रहा है तो वह भारतीय मीडिया है. उन्हें लगता है कि मोदी की जीत राष्ट्रवाद की जीत है. उनसे पूछने का मन करता है कि यह कैसा राष्ट्रवाद है जो सवर्ण वर्चस्ववाद को स्थापित करता है. संसद से लेकर पंचायत तक. यह कैसा राष्ट्रवाद है जो पीएम तक को जाति को स्थापित करने पर मजबूर करता है.
क्या मोदी ने ईवीएम नहीं हिन्दू दिमाग को हैक कर लिया है
बहुत लोग शंका व्यक्त कर रहे हैं कि मोदी और शाह ने ईवीएम को हैक कर चुनाव जीता है. बहरहाल चुनाव आयोग का मोदी के प्रति सॉफ्ट रवैया, जरूरत से ज्यादा छूट देने और आयोग द्वारा बहुत चीज अपारदर्शी रखने के कारण यह शंका घर करती है तो भी इस प्रश्न को स्थगित करते हुए एआईएमआईएम के सुप्रीमो असौद्दिन ओवैसी के उस व्यक्तव्य पर गौर करते हैं जिसमें उन्होंने एक टीवी इंटरव्यू में कहा है कि ईवीएम नहीं हिन्दू दिमाग को हैक कर लिया गया है. यह कहना उनके राजनीति को सूट करता है और बीजेपी को भी. क्या खुद उनकी राजनीति में हिन्दू बेदखल हैं? क्या ऐसा कहना चाहते हैं वे? क्या उनकी जीत में हिन्दुओं का लेशमात्र योगदान नहीं? क्या टीआरएस हिन्दुओं और ब्राह्मणों की पार्टी नहीं है जिससे उनका गठजोड़ है? क्या प्रकाश अम्बेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी हिन्दुओं की पार्टी नहीं जिसके साथ उनका गठबंधन है? यह कहना की बीजेपी हिंदुत्व फैला रही है यह राजनीति को सरलीकृत कर देना है. हिन्दू -मुस्लिम की बाइनरी तैयार करना है. बाबासाहेब ने कहा था हिन्दू समाज एक मिथ है. अगर सही कहे तो बीजेपी हिंदुत्व नहीं जातिवाद फैला रही है. पश्चिम बंगाल में उन्होंने यही किया. वहां मतुआ संप्रदाय के साथ गठजोड़ किया. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मतुआ संप्रदाय दो सौ साल पुराना है. इसने आधुनिक भारत में धार्मिक रूप से सबसे पहले ब्राह्मणवाद के खिलाफ बिगुल बजाया. इतिहास में नामशुद्रों को बहुत प्रताड़ित किया गया है. बांग्लादेश द्वारा भी और पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट सरकार और भद्रलोक द्वारा भी. इनकी आबादी पूरे पश्चिम बंगाल में 17 प्रतिशत है और वे करीब सत्तर विधानसभा के नतीजे प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. बीजेपी ने उनको साधा क्योंकि दशकों से इनको बंगाल के समाज में हाशिए पर खड़ा कर दिया गया था. इनके खिलाफ घृणा अभियान चलाया गया. इनके इंटीग्रिटी और देशभक्ति पर सवाल उठाए गए. इनको बीजेपी ने एक राजनीतिक स्पेस प्रोवाइड किया. जिसमे ये खुद शामिल होते चले गए. चूंकि दीर्घ राजनीति में ये बीजेपी के साथ नहीं टिक पाएंगे, लेकिन वे अभी बंगाल में बीजेपी की ताकत बन चुके हैं. इस तरह बीजेपी ने वहां जातिवाद फैलाया. केवल नमशुद्री में नहीं वहां पूर्वांचल और बिहार से गए उच्च वर्णी ब्राह्मण,भूमिहार जैसे जातियों में राष्ट्रवाद के नाम पर जाति अस्मिता को भुनाया और स्थानीय बंगाल के भद्रलोक यानी कुलीन ब्राह्मण, वैद्य और कायस्थों में सुसुप्त जाति अस्मिता को जगाया. इसलिए यह कहना कि बीजेपी हिंदुत्व फैला रही है गलत है. वह सब जगह जातिवाद फैला रही है. जाति गौरव की परिभाषा गढ़ रही है. जिसे वे अपनी भाषा में राष्ट्रवाद कहते हैं.
क्या बीजेपी के जीत ने साबित किया कि ब्राह्मणवाद अपराजेय है?
कुछ लोग डरे हुए हैं. उन्हें लग रहा है ब्राह्मणवाद जो संविधान लागू होने के बाद शिथिल हो रहा था वह पुनः स्थापित हो रहा है. भय निर्मूल नहीं है. लेकिन वास्तविक परिस्थिति यह है कि ब्राह्मणवाद पहले से ज्यादा इंक्लूसिव हुआ है. अब वह किसी जाति को एक्सक्लूड करने की बात नहीं करता बल्कि वह अपने फ्रेम में उसे शामिल कर रहा है. जातियों को वह स्पेस दे रहा है. पहले उसने कोइरी और राजभर को शामिल किया. बिहार में कुर्मी और पासवान को शामिल किया. चिराग पासवान के एक बार बोलने पर लोजपा को छह सीट तुरंत दे दी गई. यह लोगों को शामिल करने का काम भाजपा हिंदुत्व के नाम पर नहीं कर रहा है, बल्कि जाति अस्मिता के नाम पर कर रहा है. यह विपक्ष को चुनौती है क्योंकि उनका जातीय नेरेटिव बीजेपी ने पूरी तरह हड़प लिया है. यही एक अस्त्र था जिससे वे बीजेपी को अतीत में परास्त करते थे. बीजेपी ने उनका अस्त्र ही छीन लिया. यह बीजेपी की मजबूती है और यही भविष्य में कमजोरी साबित होगी क्योंकि बीजेपी ने अपने अंदर इतना कनफ्लिक्ट इक्कठा कर लिया है कि एक दिन यही उसके विघटन का कारण बनेगा.
इन परिस्थितियों में विपक्ष क्या करें?
विपक्ष थोड़ा सांस लें. सोचे कि समाज और परिस्थिति कितने बदल गये हैं. जाति की राजनीति से जाति का खात्मा नहीं होगा. जो आंबेडकरवादी है वह जानते हैं कि बाबासाहेब का अंतिम लक्ष्य था अनाईलेशन ऑफ़ कास्ट. मतलब जाति का जड़ से खात्मा. मिशनरी लोग इस बात पर कायम रहे. युग बदला है, युगधर्म बदला है. राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल गई है. सवर्णों ने अपने सारे नेरेटिव बदल लिए है. उनके लिए अब महात्मा गांधी राष्ट्रपिता नहीं बल्कि देशद्रोही है और नाथू राम गोडसे महान देशभक्त. प्रज्ञा ठाकुर की जीत से यह साबित हुआ है. जिस गांधी की आंबेडकरवादी आलोचना करते नहीं थकते थे उसको उन्होंने खुद खारिज कर दिया है. अब नाथूराम गोडसे और उस जैसे हत्यारे और अतंकवादी आपके सामने हैं, अपना नरेटिव लेकर. वे अपना जातिवाद पूरे समाज पर थोपने की कोशिश करेंगे. उसको राष्ट्रवाद की भव्यता के रूप में समाज का श्रृंगार बनाने की कोशिश करेंगे. सबका साथ तो लेंगे लेकिन विकास गिने चुने लोगो का होगा. बहुत सारी चुनौतिया भारतीय समाज को मिलनेवाली है जिससे निपटने के समेकित प्रयोजन नहीं किए गए तो भारतीय समाज की प्रगतिशीलता, स्वतंत्रता, भाईचारा को एक नए अंधकार युग में प्रवेश करने से कोई नहीं रोक सकता.
अंत में निष्कर्ष यही कहना है कि पूरे पूंजीवादी, प्रतिगामी, जातिवादी तंत्र जो आधुनिक यंत्र-तंत्र से समृद्ध हो उससे पार पाना किसी अकेले राजनीतिक पार्टी के वश की बात नही. जिन्हे केवल राजनीतिक दल पर भरोसा है उन्हें केवल निराशा छोड़कर कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला. क्योंकि पूंजी प्रायोजित ब्रांड से निपटने के लिए किसी राजनीतिक पार्टी के पास न इच्छाशक्ति है और न युक्ति है. ना संसाधन है और ना ही जोखिम उठाने का दम. वे अपने परंपरागत जाति शास्त्रों से ही युद्ध लड़ने के लिए अभिशप्त हैं. जबकि जाति अब एक भोथरा हथियार हो चुका है. उन्हें संघ के विकल्प का दर्शन गढ़ना होगा जो फिलहाल उनके दायरे के बाहर की चीज प्रतीत हो रही है.
(लेखक मनीष चांद मूलत: आरा, बिहार से हैं)