बेगूसराय के रास्ते फिर से कई तरह की वामपंथी विवेचना प्रस्तुत की जा रही है. मार्क्सवाद के लबादे में छिपे शासक वर्ग के प्रतिनिधि लगातार यह तर्क गढ़ रहे हैं कि बेगूसराय में जाति की दीवार टूट रही है
संजय कुमार
भारत मे वामपंथी राजनीति पर भारतीय राजनीति की स्पष्ट छाप रही है. जिस तरह भारतीय शासक वर्ग हमेशा रूस या फिर अमेरिका का पिछलग्गू बना रहा वैसे ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां भी हमेशा कभी रूस तो कभी चीन के साथ चिपकी रहीं. और ये सबकुछ इन्होंने वामपंथी आंदोलन को मजबूत बनाने के नाम पर किया. इन्होंने अपने आंदोलन के इतिहास में कभी भी जाति के सवाल को गंभीरता से नहीं लिया. चूंकि शासक वर्गों का ही एक हिस्सा कम्युनिस्ट पार्टियों का प्रतिनिधित्व करता था इसलिए यहां की कम्युनिस्ट पार्टी भी तेलंगाना के बाद कभी भी शासक वर्गों के खिलाफ आंदोलन के बजाए उनको लेजीटीमाईज करने में लगी रही और इस प्रक्रिया में इन्होंने वास्तव में ब्राह्मणवादी हिन्दू राज्य को ही मजबूत किया.
बिहार में खासकर 1970 के दौर के बाद राजनीति में पिछड़ों के उभार को जातिवादी कहा जाता रहा है. इसके विवेचना के पीछे वही लोग रहे हैं जिन्होंने शासक वर्गों के साथ मिलकर प्रगतिशीलता और वामपंथ के लबादे में सत्ता की मलाई चाभी थी. यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब विधानसभा और लोकसभा में सारे सवर्ण चुनकर जाते थे तब इसमें कहीं जातिवाद नहीं था? इनके अनुसार जातिवाद तो तब आया जब पिछड़ों और दलितों ने भी संसद और विधानसभा में दावेदारी मांगी.
बेगूसराय के रास्ते फिर से कई तरह की वामपंथी विवेचना प्रस्तुत की जा रही है. मार्क्सवाद के लबादे में छिपे शासक वर्ग के प्रतिनिधि लगातार यह तर्क गढ़ रहे हैं कि बेगूसराय में जाति की दीवार टूट रही है. इस विवेचना में लगभग तमाम एलीट वर्गों से आये मार्क्सवादी स्वयंभू बुद्धिजीवी शामिल हैं. यही भारतीय वामपंथ की त्रासदी है कि वामपंथी लिबास में छिपे शासक वर्गों के असली प्रतिनिधि जो एक बड़े हद तक ग्राम्सी के लहजे में एक डोमिनेंट परसेप्शन गढ़ते हैं और एक ऐसा सैद्धान्तिक औरा गढ़ते हैं जिसमें प्रतिगामी जकड़न को ही न्यायवादी ठहराने की कोशिश होती है.
क्या वास्तव में बेगूसराय में जातिवादी जकड़न टूट रही है? आइए हम इसे तथ्यों के सहारे समझने की कोशिश करते हैं. बेगूसराय के संसदीय इतिहास में अबतक केवल एक बार एक मुस्लिम सांसद को छोड़कर हमेशा सवर्ण सांसद चुने जाते रहे हैं. अगर वहां जातिवादी जकड़न दलितों और पिछड़ों की वजह से थी तब हमेशा सवर्ण सांसद कैसे चुने जाते रहे? जाहिर तौर पर इनके चुने जाने में दलितों और पिछड़ों की भी भूमिका थी. और आज अगर सांसदों की फेहरिस्त में कन्हैया भी शामिल हो जाता है तब इसमें किस दृष्टिकोण से जातीय दीवार टूट रही है? ध्यान रहे कि यहां जातीय दीवार चुनने वालों की तरफ से नहीं बल्कि चुने जानेवाले की तरफ से रहा है. इसलिए यहां संसदीय राजनीति में जाति के टूटने का मतलब चुने जाने वाले प्रतिनिधियों में जाति की दीवार का टूटना है. तब क्या सच में बेगूसराय में जाति की दीवार टूट रही है? अगर तथ्य पर गौर करें तब यहां जाति की दीवार टूटने के बजाए पुरानी ही प्रक्रिया को बढ़ाया जा रहा है. ऐसे में जो तथाकथित वामपंथी ‘विचारक’ यह डोमिनेंट परसेप्शन बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि बेगूसराय में जाति की दीवार टूट रही है उन्हें ज़रा तथ्यों के आधार पर यह समझाना चाहिए कि वो किस तरफ से टूट रही है. आज जब सत्ता का संकट बढ़ रहा है तब शहरी संभ्रांत लोगों के बीच से पैदा हुआ यह वामपंथी लबादे में छिपा शासकवर्गीय बुद्धिजीवी भी चिंतित है और इस सोशल आर्डर को बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा है. सामाजिक आर्थिक बदलाव के पक्ष में खड़े लोगों के लिए वक़्त आ गया है कि इनको कहा जाए कि हम तुम्हारे फुटसोल्जर नहीं हैं!
(संजय कुमार पटना यूनिवर्सिटी में पोलिटिकल साइंस के स्टूडेंट है)