किसानों से जुड़े अपने चुनावी वादों पर कितने खरे उतरे नरेंद्र मोदी?

    मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान किसानों के हालात को सुधारने का वादा किया था. पर पांच साल की अपनी सरकार में मोदी अपने वादों पर खरा नहीं उतरे. पांच विधानसभा चुनावों में हार के बाद उन्होंने PM-KISAN जैसी योजना शुरू की, पर क्या वाकई किसानों के हालात बदलेंगे?

    मौ. ताहिर शब्बीर

    प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो: Wikimedia Commons/Azhar Feder)

    मार्च 2014 में महाराष्ट्र के वर्धा में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार पर किसानों के हितों की अनदेखी का आरोप लगाते हुए तब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सीमाओं पर सैनिकों की तुलना में महाराष्ट्र में अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. उन्होंने कसम खाई कि अगर उनकी सरकार लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में आई तो “किसानों को अत्यधिक ब्याज पर ऋण के लिए साहूकारों के पास नहीं जाना पड़ेगा”. साथ ही उन्होंने किसानों के लिए कई ओर लोकलुभावन घोषणाएं भी कर डालीं थी.

    इसी तरह अप्रैल 2014 में झारखंड के हजारीबाग में किसानों को सम्बोधित करते हुए मोदी ने कहा था, “हम न्यूनतम समर्थन मूल्य को बदल देंगे. एक नया फार्मूला होगा- “उत्पादन की पूरी लागत और 50 प्रतिशत लाभ”. यह कदम न केवल किसानों की मदद करेगा बल्कि यह किसी को भी किसानों को लूटने की अनुमति नहीं देगा.”

    आंकड़ों को छुपाती मोदी सरकार

    क्या मोदी सरकार अपने वादों पर खरा उतरी? वर्तमान सच्चाई तो कुछ ओर ही बयां कर रही है. सरकार बनने के 1 साल बाद एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) के आंकड़े देखें तो 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद 2015 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में रिकॉर्ड 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसके अनुसार 2014 में देश में हर दिन 15 किसानों ने आत्महत्या की तो 2015 में यह आंकड़ा सरकार के वादे के उलट, 21 तक जा पहुंचा. पूरे साल देश में तकरीबन 8,000 किसानों ने खुदकुशी की, जिनमें 3,030 किसानों की आत्महत्या के साथ महाराष्ट्र पहले पायदान पर रहा.

    साल 2015 के बाद कितने किसानों ने खुदकुशी है, इसकी जानकारी केंद्र सरकार के पास भी नहीं है. खुद केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने संसद में यह बात कही थी. उन्होंने बताया, “एनसीआरबी ने साल 2016 से ‘एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड्स इन इंडिया’ नाम की रिपोर्ट में हर साल जारी किए जाने वाले किसानों की खुदकुशी से जुड़े आंकड़े जारी ही नहीं किए हैं, इसलिए 2015 के बाद के आंकड़े सरकार के पास नहीं हैं”. लेकिन अगर राज्य सरकार के आंकड़ों पर गौर करें तो, भारत में धनी और विकसित कहे जाने वाले महाराष्ट्र राज्य में किसानों की स्थिति बद से बदतर हुई है.

    किसानों की आत्महत्या में वृद्धि

    द प्रिंट में छपी एक खबर के अनुसार, महाराष्ट्र में कृषि क्षेत्र पर समग्र व्यय में वृद्धि के बावजूद बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के 4 वर्षों में किसानों की आत्महत्या लगभग दोगुनी हो गई. राज्य के राहत और पुनर्वास विभाग के डेटा से पता चलता है कि जनवरी 2015 से सितंबर 2018 के बीच 11,225 किसान आत्महत्याएं दर्ज की गई थीं, जबकि पिछली कांग्रेस-एनसीपी सरकार के पहले 4 वर्षों (जनवरी 2010 से दिसंबर 2013) में किसान आत्महत्याओं के 6,028 मामले सामने आए थे.

    आरटीआई से मिली एक अन्य जानकारी के मुताबिक महाराष्ट्र में औसतन 8 किसान रोज आत्महत्या करते हैं. 2014 से 2018 तक महाराष्ट्र में 14,034 किसानों ने आत्महत्या की है. हैरानी की बात है कि राज्य सरकार के जून 2017 में किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा के बाद भी किसानों की आत्महत्या जारी है.

    महाराष्ट्र का विदर्भ इलाका किसानों की आत्महत्या के लिए शुरु से ही बदनाम रहा है. 1990 में प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार द हिंदू के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी. साईंनाथ ने किसानों द्वारा नियमित आत्महत्याओं की सूचना दी थी तब भी ये खबरें सबसे पहले इन्हीं इलाकों से आई थीं. साईंनाथ ने महाराष्ट्र को “किसानों का कब्रिस्तान” कहा था.

    किसानों की जगह उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाती सरकार

    कृषि प्रधान देश भारत में, जिसकी लगभग 70 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है. किसानों की आत्महत्या एक बड़ी चिंता का विषय है. हैरानी की बात है कि आत्महत्या करने वाले केवल किसानों में सिर्फ छोटी जोत वाले ही नहीं, बल्कि मध्यम और बड़े जोतों वाले किसान भी हैं.

    वर्तमान मोदी सरकार भी भले ही किसानों को अहम मुद्दा बनाकर सरकार में आई हो, लेकिन इसके बाद भी किसानों की हालत सुधरने के बजाए ओर बदतर ही हुई है. सरकार पर किसानों की अनदेखी कर पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने तथा बैंकों में जमा लोगों का पैसा उन पर लुटाने का आरोप लगता रहा है. जिस कारण पिछले दिनों देश में बड़े किसान प्रदर्शन हुए. जिनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश सहित देश के कई राज्यों के नाराज किसानों ने दिल्ली में बड़ा किसान प्रदर्शन कर मोदी सरकार पर किसानों से वादाखिलाफी करने का आरोप लगाया था.

    किसानों का विरोध-प्रदर्शन और नई योजनाएं

    महाराष्ट्र में भी हजारों किसान और आदिवासी 180 किलोमीटर का पैदल मार्च करते हुए कुछ दिनों पहले नासिक से मुंबई के आजाद मैदान में प्रदर्शन कर चुके हैं. किसानों और आदिवासियों ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने की मांग की है.

    हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को मिली करारी हार को किसानों की नाराजगी से जोड़कर ही देखा जा रहा है. जिससे शायद कुछ सबक लेते हुए सरकार ने किसानों के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-KISAN) योजना शुरू की है. जिसका शुभारम्भ पीएम मोदी ने उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से किया. इसके तहत किसानों को प्रति वर्ष 3 किस्तों में 6,000 रुपये दिए जाएंगे. जिसकी 2,000 रुपये की पहली किस्त एक करोड़ से अधिक किसानों को दी जा चुकी है.

    लेकिन यह योजना कितनी सफल रहेगी और इससे कितने किसानों की हालत सुधरेगी, यह देखना बाकी है. इससे पहले केंद्र सरकार की एक अन्य किसान योजना “प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई)” पर भी खूब विवाद हुआ था. यह योजना उन किसानों पर प्रीमियम का बोझ कम करने के लिए है, जो अपनी खेती के लिए ऋण लेते हैं. इस योजना को पत्रकार पी. साईनाथ ने “राफेल से भी बड़ा घोटाला” करार दिया था. वैसे पूर्व में भी केन्द्र और राज्य सरकारों ने किसानों की आत्महत्या जैसी गंभीर समस्या पर विचार करने के लिए कई जांच समितियां बनाईं. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी महाराष्ट्र सरकार द्वारा विदर्भ के किसानों पर व्यय करने के लिए 110 अरब रूपए के अनुदान की घोषणा की थी. लेकिन न तो किसानों की आत्महत्याएं रुकीं और न ही उनकी हालत में कोई सुधार आया है.