हालिया अतीत में लगातार चुनावी असफलता से उबरते हुए बसपा प्रमुख इस लोकसभा चुनावों के दौरान मजबूती से उभरी हैं. वे व्यक्तिगत तौर पर दलित और महिला अस्मिता की शानदार मिसाल हैं, साथ ही उन्होंने अतीत में यूपी में बतौर मुख्यमंत्री सुशासन की सरकार दी है.
सरोज कुमार

पिछले लोकसभा चुनावों और फिर 2017 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा के बाद कथित मुख्यधारा का मीडिया बसपा प्रमुख मायावती के ‘राजनैतिक पतन’ की मुनादी कर रहा था. एनडीटीवी ने 9 मार्च 2017 को एक्जिट पोल पर स्टोरी करते हुए शीर्षक दिया था- ‘मायावती के सियासी भविष्य पर सवालिया निशान’ तो 11 मार्च को जी न्यूज ने लिखा दिया था कि ‘क्या खत्म हो जाएगा मायावती का राजनीतिक करियर?’ अगले दिन हिंदुस्तान टाइम्स ने भी लिखा कि ‘इज इट द एंड ऑफ द रोड फॉर मायावती’ तो आज तक ने लिखा था कि ‘क्या ये हार मायावती के राजनैतिक पतन की शुरुआत है?’ इन शीर्षकों के जरिए मीडिया ने मायावती को चूका हुआ राजनैतिक शख्सियत मान लिया था.
बसपा प्रमुख की नई वापसी
लेकिन करीब दो साल बाद उसी मीडिया को मायावती को प्रधानमंत्री का एक प्रमुख दावेदार मानने को मजबूर होना पड़ रहा है. यह कोई अनायास नहीं हुआ है. मायावती अपनी राजनैतिक सूझ-बूझ और रणनीतिक कौशल के जरिए इस बार के लोकसभा चुनावों में बेहद मजबूती के साथ उभरी हैं. यही वजह है कि मीडिया उन्हें तवज्जो देने को बाध्य हुआ है. दरअसल, लोकसभा चुनावों से काफी पहले ही मायावती को यह बखूबी एहसास था कि उनका प्रमुख समर्थन आधार वोट समूह यानी दलित तथा पिछड़ों में खासकर मोदी सरकार के खिलाफ खासी बेचैनी है और वे एकजुट होने की जरूरत महसूस कर रहे हैं. इसी तरह मुसलमान समुदाय भी मोदी सरकार को लेकर हमेशा आशंकित रहा है. इनके बीच गठजोड़ की मांग जमीनी स्तर से ही उठी और फिर बसपा और सपा नेतृत्व ने इसे आजमाया और पिछले साल के लोकसभा उपचुनावों के बाद 2019 के इस लोकसभा चुनावों में भी सफल होते दिख रहे हैं. यही वजह है कि प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती की दावेदारी मजबूत है.
मायावती की मजबूत दावेदारी
उत्तर प्रदेश (यूपी) में लोकसभा की सबसे ज्यादा (80) सीटें हैं और इसी कारण एक सियासी कहावत मशहूर है कि दिल्ली का रास्ता यूपी होकर ही जाता है. अब विभिन्न अनुमानों और रिपोर्ट्स में भी बसपा-सपा-रालोद गठबंधन की स्थिति यूपी में सबसे मजबूत बताई जा रही है और अनुमान लगाया जा रहा है कि यह गठबंधन कम-से-कम यूपी की आधी से ज्यादा सीटें जीतेगा. अगर सबकुछ सही रहा तो यह गठबंधन यूपी से भाजपा-कांग्रेस दोनों का सफाया भी कर सकता है. ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए दिल्ली की सत्ता पर कब्जा करना आसान नहीं रह जाएगा. शायद इसी संभावना को भांपते हुए व्यापारिक जगत ने भी गठबंधन सरकार के प्रति सकारात्मक बयान दिया है. यहां तक कि प्रधानमंत्री को एक इंटरव्यू में यहां तक कहना पड़ा कि ‘उन्हें गठबंधन सरकार चलाने का अच्छा अनुभव है.’ कांग्रेस भी ऐसी संभावनाओं पर विचार कर रही है. ऐसे में जाहिर है, अगर सपा-बसपा-रालोद गठबंधन अगर यूपी में शानदार कामयाबी हासिल करता है तो मायावती की दावेदारी सबसे मजबूत हो जाएगी. ऐसी संभावना नजर आ भी रही है.
वे क्यों हैं सबसे बेहतर विकल्प?
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच जारी नुराकुश्ती के बाद बहुत सारे कथित लिबरल्स ममता बनर्जी को नरेंद्र मोदी के बरअक्स खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल, ममता बनर्जी का आधार सिर्फ बंगाल तक सीमित है, इसलिए भाजपा या कांग्रेस के लिए वे देशव्यापी खतरा नहीं हैं. यही वजह है कि उनके वर्चस्व वाला लिबरल समूह और मीडिया भी ममता बनर्जी को मोदी के बरअक्स पेश कर रहा है. दरअसल, ममता बनर्जी खासकर भाजपा की रणनीति के लिए भी मुफीद बैठेंगी, जैसा कि वे बंगाल में करती नजर आ रही हैं. वे खुद बनाम भाजपा की बाइनरी खड़ा करने में कामयाब होती दिख रही हैं. वहीं ममता बनर्जी की छवि भी तानाशाही भरी रही है.
ऐसे में ममता बनर्जी के विपरीत मायावती ज्यादा बेहतर विकल्प हैं. वे व्यक्तिगत तौर पर न केवल महिला बल्कि दलित अस्मिता की भी शानदार प्रतीक हैं. देश ने अब तक मुख्यतः कांग्रेस और फिर भाजपा के वर्चस्व वाली सरकारें और प्रधानमंत्री देखा है. इसलिए जरूरी है कि इन दोनों से इतर कोई सरकार और प्रधानमंत्री बने. यह वक्त की मांग भी है कि कोई पहली बार दलित तबके से प्रधानमंत्री बने, जो तबका ऐतिहासिक रूप से सदियों से भारत में हाशिए पर रखा गया है. मायावती की बड़ी खासियत यह भी है कि वे कांग्रेस-भाजपा के बाइनरी से इतर एक स्वतंत्र दलित आवाज हैं. मायावती चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. उनके राज में कानून व्यवस्था भी बेहतर रही है. यहां तक कि उनके राज में सांप्रदायिक दंगे भी बाकियों के राज के मुकाबले काफी कम हुए हैं. हालांकि उनके कार्यकाल में कुछ विवादास्पद पुलिस अधिकारियों पर बेगुनाह मुसलमान युवकों को फंसाने का आरोप भी लगा है, जिसकी वजह से यह तबका थोड़ा आशंकित था. लेकिन हाल में वे अतीत से सीखती हुई नजर आई हैं. गेस्ट हाउस कांड जैसे कड़वे अनुभव को भी बड़े लक्ष्य के लिए तिलांजलि दे देना भी उनकी इसी समझदारी और कौशल का उदाहरण है. ऐसे में उम्मीद है कि वे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए भी बेहतर साबित होंगी.
चूंकि यूपी में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें हैं और मायावती का गठबंधन अगर भाजपा-कांग्रेस का वहां सफाया कर देता है, तब वे कोई कमजोर या केवल दूसरों पर बहुत ज्यादा निर्भर प्रधानमंत्री नहीं रहेंगी. तब उनके पास सरकार के लिहाज से हमेशा दबाव बनाए रखने के लिए बहुत अच्छी-खासी सीटें रहेंगी. इसलिए भी गठबंधन की सरकार बनने की स्थिति में बेहतर विकल्प हैं.
दलितों-पिछड़ों की नाराजगी मोल लेगी कांग्रेस-भाजपा?
कर्नाटक के पिछले विधानसभा चुनावों में बसपा ने जेडी(एस) के साथ गठबंधन किया था और जेडी(एस) कांग्रेस के साथ सरकार बनाने और मुख्यमंत्री पद हासिल करने में सफल रही थी. कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों, दक्षिण भारत के भी दलों के साथ मायावती के संबंध खराब नहीं हैं. कई सारे नेता चुनाव से पहले और अब भी उनके मुलाकात करने आए हैं. दरअसल, इसकी वजह उनका दलितों का मजबूत प्रतीक होना है. ऐसे में अगर मायावती के लिए उपयुक्त परिस्थितियां बनती है, तो किसी भी दल के लिए उनका विरोध करना आसान नहीं रहेगा. उदाहरण के लिए बिहार में राजद जिस तरह के अब दलितों को लुभाने की कोशिश कर रही है, वह मायावती को नजरअंदाज नहीं कर सकती. इसी तरह दलित वोटों पर नजर रखने वाले कांग्रेस और भाजपा के लिए भी उनका विरोध करना मुश्किल हो जाएगा. इसके अलावा सपा प्रमुख अखिलेश यादव तथा रालोद का साथ हासिल करके वे और मजबूत हुई हैं. इन तबकों की भी वे प्रतिनिधि दावेदार के रूप में सामने आ सकती हैं. जाहिर है, प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती की दावेदारी न केवल मजबूत है बल्कि वे इस पद के लिए सबसे बेहतर विकल्प भी हैं.