यह फिल्म जातिगत अत्याचारों की बात तो करती है, लेकिन साथ ही दलितों का स्टीरियोटाइप चित्रण और उनके राजनैतिक-सामाजिक संघर्षों की लीपापोती भी करती नजर आती है. ठीक उसी तरह जैसे अमेरिकन फिल्म मिसीसिपी बर्निंग ने अफ्रीकन-अमेरिकी समुदाय के साथ किया था.
सरोज कुमार

भारतीय समाज का ‘संतुलन’ क्या है? समाज में जातिगत आधार पर कब्जा जमाए लोगों के लिए ‘संतुलन’ वही है तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने कायम किया है. यानी उसके मुताबिक, ब्राह्मण और क्षत्रिय श्रेष्ठ तथा दलित तो इस व्यवस्था से ही बाहर हैं. आर्टिकल 15 फिल्म में दलित बच्चियों के बलात्कार और हत्या का मुख्य दोषी अंशु नहारिया कहता है कि उनकी कोई ‘औकात’ ही नहीं, जो वे देते हैं वही दलितों की ‘औकात’ है. इसी ‘सबक’ को सिखाने के लिए वह महज 3 रु. मजदूरी बढ़ाने की मांग कर रही बच्चियों के साथ इतना घिनौना अपराध करता है. इस फिल्म का ‘नायक’ पुलिस अफसर अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) ऐसा लगता है, मानो किसी और देश या ग्रह से आ टपका हो कि उसे पता ही नहीं कि भारतीय समाज में जाति जैसी कोई चीज है और उसके आधार पर भेदभाव अब भी कायम है. अपने मातहत पुलिस कर्मचारियों की जाति पूछते हुए वह कुछ ऐसा ही नजर आता है. अयान के बिना बताए या नाम में ब्राह्मण टाइटल रखे कैसे उन्हें अयान के ब्राह्मण होने की जानकारी है? खैर, अयान के मुताबिक, “इस संतुलन में कुछ भारी गड़बड़ी है. इसे सही करने के लिए कोई नया तरीका सोचना होगा.”
लेकिन क्या असल में अयान रंजन या फिर यह फिल्म इस ‘संतुलन’ को असंतुलित करते नजर आते हैं? इस ब्राह्मणवादी ‘संतुलन’ ने जाति के आधार पर कर्म की भी व्यवस्था दी है. मसलन, मैला या नाला साफ करना किनके जिम्मे दे दिया गया? कुछ साल पहले नरेंद्र मोदी ने जिसे आध्यात्मिक अनुभव वाला काम बताया था. फिल्म में दलित सफाई कर्मचारी प्रतिरोध के तौर पर नालों की सफाई और मवेशियों के शव उठाने का काम बंद कर देते हैं और थाने में भी नाला बहने लगता है. तब अयान रंजन दलितों के नेता निषाद (जीशान अयूब) से अनुरोध करने जाते हैं कि हड़ताली दलित काम पर लौट जाएं. हालांकि वे बहाना कीचड़ भरी नदी में गुमशुदा लड़की की तलाश का देते हैं. उनके अनुरोध पर निषाद मान जाता है और अगले ही दृश्य में एक दलित सफाई कर्मचारी गटर में पूरा डूबकर उसे साफ करता नजर आता है. आखिर यह काम किसी और से क्यों नहीं करवाया गया? क्या उस ‘संतुलन’ पर प्रहार करने की तमन्ना रखने वाले अयान के मन में यह क्यों आया कि दलितों के बगैर यह काम नहीं हो सकता?
गांधी या आंबेडकर?
यह पूरा प्रसंग स्पष्ट करता है कि दरअसल अयान यानि यह फिल्म उस संतुलन को तोड़ना नहीं चाहते बल्कि उसे नए सिरे से कायम करना चाहते हैं. यह महात्मा गांधी के उस दर्शन की तरह नजर आता है कि जाति व्यवस्था ठीक है, पर छूआछूत जैसी चीजें नहीं होनी चाहिए. इसी तरह यह फिल्म जाति की बात तो करती है और यह भी कहती नजर आती है कि दलितों पर अत्याचार तथा भेदभाव होता है. लेकिन इससे यह आगे बढ़ नहीं पाती. बल्कि अयान इसमें ‘उद्धारक’ या ‘मसीहा’ की शक्ल में उसी ‘संतुलन’ के अपडेटेड नायक की तरह उभरते हैं. भले ही अयान बार-बार फिल्म में सफाई सा देते फिरते दिखे कि वे कोई हीरो नहीं हैं. वरना आखिरी दृश्य में गुमशुदा लड़की की बड़ी बहन और निषाद की प्रेमिका गौरा (सयानी गुप्ता) ‘एहसान’ के बोझ तले दबी और अयान की ओर कृतज्ञतापूर्वक हाथ जोड़े नजर नहीं आती.
आंबेडकर ने गांधी के बारे में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, “हम अस्पृश्यता समाप्त करना चाहते हैं. लेकिन साथ ही हम ये भी चाहते हैं कि हमें समान अवसर दिया जाना चाहिए ताकि हम अन्य वर्गों के स्तर तक पहुंच सकें…दलितों को समानता मिलनी चाहिए और उनके पास उच्च पदस्थ होने के अवसर भी होने चाहिए…वो (गांधी) अस्पृश्यता के बारे में सिर्फ़ इसलिए बात करते थे कि अस्पृश्यों को कांग्रेस के साथ जोड़ सकें. ये एक बात थी. दूसरी बात, वो चाहते थे कि अस्पृश्य स्वराज की उनकी अवधारणा का विरोध न करें.” यह फिल्म कुछ इसी तरह सिर्फ दलितों पर अत्याचार की बात करती नजर आ रही है. फिल्म के आखिर में गांधी का पसंदीदा भजन ‘वैष्णव जन…’ की धुन भी बजती है.
दलितों के प्रतिरोध की लीपापोती
इस फिल्म में हालिया राजनैतिक-सामाजिक घटनाओं के प्रतीकों का भरपूर प्रयोग है. मसलन, गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई जैसे दृश्य और भीम आर्मी जैसा एक संगठन. निषाद के रूप में भले ही एक मजबूत संभावनाओं वाला दलित पात्र है लेकिन उसके लिए बहुत स्कोप छोड़ा नहीं गया है. और असल में यह फिल्म उसी पर केंद्रित होनी चाहिए थी, अयान रंजन की नहीं. यह इस वजह से भी कि दलितों के खिलाफ जो भी घटनाएं (जैसे ऊना) हुई हैं, उसके खिलाफ हाल में दलितों ने ही ताकतवर प्रतिरोध दर्ज कराया है. और कुछ सकारात्मक हुआ भी है तो उनके प्रतिरोधों की वजह से ही, ना कि किसी पुलिस अधिकारी की वजह से.
आर्टिकल 15 को देखते हुए 1988 में बनी अमेरिकी फिल्म मिसीसिपी बर्निंग की याद आती है, बल्कि इस पर उसकी छाप नजर आती है. उस फिल्म को काफी सराहा गया था और कई अवार्ड मिले थे. उस फिल्म में मिसीसिपी में 1964 में दो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या की जांच की कहानी है और अफ्रीकन-अमेरिकी ब्लैक के साथ बेहद अमानवीय अत्याचार की भेदभाव की झलक है. लेकिन अफ्रीकन-अमेरिकी अधिकार कार्यकर्ता उस फिल्म में ब्लैक समुदाय के संघर्ष के इतिहास को काल्पनिक तरीके से गढ़ने की आलोचना करते हैं. अपनी किताब अनथिंकिंग यूरोसेंट्रिज्म में इला शोहत और रॉबर्ट स्टैम लिखते हैं, “मिसीसिपी बर्निंग फिल्म ब्लैक समुदाय के आंदोलन को नुक्सान पहुंचाने और उत्पीड़न करने वाली एफबीआइ को ही हीरो पेश करती है. वहीं अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध-संघर्ष-आंदोलन करने वाले, कैदी बनाए जाने वाले और यहां तक कि मारे जाने वाले हजारों अफ्रीकन-अमेरिकी को महज सहायक पात्र तथा गोरे उद्धारकों का इंतजार करते निष्क्रिय पीड़ित के तौर पर फिल्म दिखाती है. ऐसे में तथ्यों से अपरिचित शख्स को यह फिल्म देख कर लग सकता है कि अफ्रीकन-अमेरिकी समुदाय अमेरिकी इतिहास का निर्माता नहीं बल्कि महज मूक दर्शक है.” आर्टिकल 15 फिल्म भी कुछ इसी तरह दलितों के राजनैतिक-सामाजिक मूवमेंट को हाशिए पर ढकेलती नजर आती है. यही नहीं, वह बड़ी चालाकी से नीला (दलित) और भगवा (संघ-भाजपा-ब्राह्मणवादी) प्रतीकों को एक-साथ आने का ‘मिसरिप्रजेंटेशन’ करती नजर आती है.
स्टीरियोटाइप (रुढ़िवादी) दलित चित्रण
दलितों के साथ भेदभाव और उनकी ‘दयनीय’ स्थिति की बात मुख्यधारा की हिंदी सिनेमा में ‘अछूत कन्या’ से लेकर ‘गुलामी’ और समानांतर सिनेमा की फिल्मों में पहले ही कहा जा चुका है. हाल के वर्षों में मसान और न्यूटन जैसी फिल्में बनी हैं जिनमें दलित उस ‘दयनीय’ व्यक्ति की बजाए मुख्यधारा के आम इनसान की तरह नजर आता है (हालांकि उनकी अपनी सीमाएं भी हैं). मसान और न्यूटन के दलित ‘नायक’ दलितों के स्टीरियोटाइप (रूढ़िवादी) चित्रण से बाहर निकलते नजर आते हैं. पा. रंजीत की तमिल फिल्म काला में तो दलित नायक बेहद ताकतवर तरीके से उभरता नजर आता है. वह लार्जर दैन लाइफ भर नहीं है बल्कि उसके आखिरी दृश्यों में वंचित जनता ही अत्याचारी के खिलाफ उठ खड़ी होती है, और सब में काला की छवि नजर आती है. लेकिन आर्टिकल 15 में केवल निषाद को छोड़कर अधिकतर दलित पात्र एक बार फिर दीनहीन, दयनीय की स्टीरियोटाइप छवि में ही कैद हैं. पुलिस अफसर जाटव को ही लीजिए, जिसे अंग्रेजी नहीं आती और वह उसकी वजह से मजाक का पात्र बना दिया गया है. जाटव का ‘ईमान’ भी तब जगता है जब ब्राह्मण अयान आता है.
हिन्दी सिनेमा में दलितों पर केंद्रित फिल्में न के बराबर बनती हैं. इस लिहाज से तो ठीक है कि दलितों पर अत्याचार को लेकर यह फिल्म मुख्यधारा में बनी है. फिल्मांकन और कथानक भी कसा हुआ है. बच्चियों के साथ ज्यादती, उन्हें पेड़ पर लटकाए जाने, नाला में उतरने जैसे कुछ दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं. यह भी थोड़ा ठीक है कि अयान रंजन के असिस्टेंट मयंक जैसे अपर कास्ट पात्रों को यह आखिरकार ‘एहसास’ होता है कि वे ‘सही नहीं’ थे. लेकिन इसके साथ ही, यह फिल्म दलितों के संघर्ष की लीपापोती और उनका स्टीरियोटाइप चित्रण करते हुए शोषक समुदाय से ही एक ‘उद्धारक’ ला खड़ा करता है. कुल मिलाकर यह सिनेमाई फिल्मांकन के लिहाज से तो ठीक-ठाक है, लेकिन वैचारिक धरातल पर खासकर दलितों की दृष्टि से कमजोर फिल्म है.
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