यह वर्तमान भारतीय दक्षिणपंथ पर गंभीर टिप्पणी करती नजर आती है. इस लिहाज से इसे मजबूत राजनीतिक सिरीज करार दिया जा सकता है. इसके संकेतक भी भारतीय समाज के ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लिए गए हैं. फिर भी यह केवल अपर कास्ट और क्लास तक ही सिमटी नजर आती है.
सरोज कुमार

नेटफ्लिक्स पर 14 जून को रिलीज हुई सिरीज लैला (Leila) की शुरुआत ही इस नोट के साथ होती है: डॉ. जोशी सभी समुदायों का चुना हुआ नेता है जिसका मकसद पृथकतवाद यानि विभिन्न समुदायों के विभाजन के जरिए ‘शांति’ कायम करना है. सभी शहर बड़ी-बड़ी दीवारों से घिरे विभिन्न सेक्टर में बंटे हैं. अलग-अलग समुदायों के अलग-अलग सेक्टर हैं. यानी पूरी कड़ाई से विभाजन का पालन करवाया जाता है. इसी से पूरी फिल्म के कथानक का आभास हो जाता है.
स्टोरी साल 2047 की कल्पना की गई है यानी भारत की आजादी के सौ साल पूरे होने का वक्त! सिरीज में जिस जगह या देश की कहानी है, उसका नाम है-आर्यावर्त. ऐसे में यह अनायास नहीं है कि इस सिरीज को भारतीय परिप्रेक्ष्य से जोड़ कर देखा जा रहा है. कुछ आहत हिंदू इसे हिंदुओं की भावना को आहत करने वाला भी करार दे रहे हैं! तो विपक्षी तबका भी है जो इस सिरीज की तारीफ करते हुए इसे वर्तमान परिस्थितियों में बेहद प्रासंगिक मान रहा है और बेहद पावरफुल तथा हिम्मती सिरीज करार दे रहा है.
लैला पावरपुल पॉलिटिकल सिरीज तो है. यह एक तो तकनीक की उन्नति और पानी-हवा के संकट वाले भविष्य की ओर जाता नजर आता है. आर्यावर्त में बड़े-बड़े आलीशान बिल्डिंग हैं, हर काम के लिए अत्याधुनिक तकनीक है पर पानी दूभर और लक्जरी है और बारिश भी काली होती है. दूसरी ओर आर्यावर्त में ऐसी सत्ता का कब्जा है जो विभिन्न समुदायों के विभाजन में विश्वास करती है और उसे पूरी तरह हिंसक तौर-तरीकों से लागू कर रही है. जोशी उन्हीं का नेता है. जो उनके नियम-कायदों को तोड़ता है, उन्हें जबरन कैद करके ‘शुद्धिकरण’ के लिए तैयार किया जाता है. जो शुद्धिकरण के लायक भी नहीं माने जाते, उन्हें जहरीली गैस से मार दिया जाता है. सिरीज की नायिका शालिनी (हुमा कुरैशी) को भी इन्हीं परिस्थितियों जूझना पड़ता है. नेटफ्लिक्स की यह सिरीज इसी शीर्षक से लिखे गए प्रयाग अकबर के उपन्यास पर आधारित है और इसके पहले दो एपिसोड को दीपा मेहता ने निर्देशित किया है.
ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अक्स
लैला सिरीज में एक मंत्र बार-बार दोहराया जाता हैः ‘हमारा जन्म ही हमारा कर्म है.’ इससे ठीक वैसा ही आभास होता है जैसे जन्म से ही जाति के निर्धारण की व्यवस्था ब्राह्मणवाद कायम करना चाहता रहा है. जाति व्यवस्था की तरह आर्यावर्त में विभिन्न धर्म और जाति के समुदाय अलग-अलग सेक्टर में विभाजित हैं. लोगों का विभाजन भी जाति जैसी व्यवस्था के आधार पर किया गया है जहां ब्राह्मणों में भी उनके कर्म के नाम पर भी विभाजन है. जैसे ‘पंचकर्मी’ को सबसे उच्च माना जाता है. सिरीज में एक और समुदाय का जिक्र है-‘दूष’ जिन्हें दूषित माना जाता है और वे शहरों के बाहर मलिन बस्तियों (स्लम) में बाहर कर दिए गए हैं. किसी अन्य को दूष कहना भी बहुत बड़ी गाली की तरह है. ऐसा लगता है मानो दलितों को लेकर यह कल्पना की गई है. सीरिज में एक जगह दिखाया गया है कि दूष कहलाए जाने वाले लोग आर्यवर्त के लोगों से पानी साझा नहीं कर सकते.
आर्यावर्त में मुख्तयाः महिलाओं के ‘शुद्धिकरण’ जोर दिया गया है. ठीक उसी तरह जिस तरह ब्राह्मणवाद महिलाओं पर वर्चस्व के जरिए अपनी सत्ता को लागू करता रहा है. ब्राह्मणवाद में जाति की ‘शुद्धता’ महत्वपूर्ण है. आर्यावर्त में परिवार की संपत्ति में हक मांगने वाली स्त्रियां गुनाहगार हैं, किसी दूसरे धर्म और जाति के पुरुष से शादी करने वाली स्त्रियां गुनाहगार मानी जाती हैं. ऐसा करने वालों को वनिता कल्याण केंद्र (Women Welfare Center) में कैद कर दिया जाता है. अमानवीय कायदों का विरोध करने वालों को ‘देशद्रोही’ करार दिया जाता है. बाद में ‘सुधर’ गईं महिलाओं का शुद्धिकरण करवाया जाता है. यह शुद्धिकरण उनसे किसी ‘देशद्रोही’ की हत्या करवा कर होता है. इसी तरह अलग-अलग समुदाय के पुरुष-स्त्री से हुए बच्चे को मिश्रित बच्चा कहा जाता है, बच्चों की ‘शुद्धता’ की जांच होती है और उन्हें किसी गुमनाम केंद्र में भेज दिया जाता है.
शोषक भी ब्राह्मण, पीड़ित भी ब्राह्मण और मददगार भी ब्राह्मण!
अगर सामाजिक-सांस्कृतिक को क्रूर तरीके से लागू किया गया तो क्या इसकी जद में वर्चस्वशाली समुदायों के लोग भी आएंगे? क्या अपर कास्ट और क्लास के शख्स भी शिकार होंगे जो संपत्ति और रसूख के दम पर खुद को सुरक्षित समझते हैं? आर्यावर्त में तो वनिता कल्याण केंद्र में अधिकतर ब्राह्मण समुदाय की महिलाएं ही कैद नजर आती हैं. नायिका भी शालिनी पाठक है. शालिनी पाठक ने एक मुसलमान शख्स रिजवान (राहुल खन्ना) से शादी की थी और उसकी बेटी का नाम लैला है. शालिनी और उसका परिवार अपर-मिडल क्लास सुविधासंपन्न प्रोफेशनल भी नजर आता है. जाहिर है, सिरीज के लेखक-निर्देशक कहीं न कहीं इसी अपर कास्ट और क्लास को संबोधित करता नजर आता है. अवैध पानी रखने के आरोप लगाकर उसके घर में सैनिक कार्रवाई सरीखा हमला किया जाता है.
सिरीज में वर्चस्वशाली समुदाय ब्राह्मण ही है और असल में कहानी भी उन्हीं के इर्द-गिर्द बुनी नजर आती है. इसमें जंग उनके बीच ही नजर आती है. नायिका भी उसी समुदाय से है, खलनायक भी उसी समुदाय से है. आर्यावर्त में सबका नेता तो जोशी हैं ही. जोशी की जगह खुद गद्दी पर बैठने की तमन्ना रखने वाले भी राव साहिब हैं. इसी तरह अमेरिका से लौटकर आर्यावर्त के स्काइडोम प्रोजेक्ट का चीफ इंजीनियर भी मिस्टर दीक्षित है, जो आखिरकार ‘मददगार’ बनता है. दरअसल, विद्रोही भी आर्यावर्त को डॉ. जोशी से आजाद कराना चाहते हैं. विद्रोहियों का अड्डा स्लम में है. इन विद्रोहियों में भानु (सिद्धार्थ) भी है जो शालिनी का मददगार नजर आता है.
लैला में भी यादव ‘नए शोषक’?
सिरीज के एकमात्र ‘यादव’ चरित्र को देखते हुए मुक्काबाज फिल्म की याद आ जाती है. जिस तरह मुक्काबाज में ‘यादव’ अफसर को अपरकास्ट नायक का ‘रिवर्स-शोषण’ करते दिखाया गया है, उसी तरह लैला में भी शालिनी की मेड रह चुकी सपना के पति आशीष यादव को भी वैसे किरदार में दिखाया है. दरअसल, शालिनी को आखिर में पता चलता है कि आशीष यादव डॉ. जोशी के लिए काम करता है और इसी वजह से उसकी तरक्की हो गई है. वही सपना जिसे वह अपने यहां मेड के रहने के दौरान बात-बात पर टोका करती थी, ठीक वैसा ही अब शालिनी के साथ होता दिखाया गया है और सपना को ऐशो-आराम तथा रसूख की जिंदगी जीते. यह कुछ उसी तरह नजर आता है जैसे यादव, दलितों और वंचित तबकों को भारत में हिंदुत्व का नया सोल्जर बता दिया जाता है. एक और चीज कचोटती है, वह यह दिखाना कि रिजवान का भाई इस्लामिक कट्टरपंथी सोच का है, अपने बड़े भाई रिजवान के ‘सेक्युलर’ लूक के बरक्स लंबी दाढ़ी रखता है और आर्यवर्त के साथ मिला हुआ है.
आर्यावर्त सरीखी कोई भी व्यवस्था रहेगी और वास्तव में ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था वैसी क्रूर रूप से रही भी हैं, तो उसकी सबसे ज्यादा मार दलित-वंचित समूहों पर ही पड़ती है. हालांकि उसकी शिकार महिलाएं भी रहेंगी, लेकिन जाहिर है उस कतार में वंचित समुदायों की महिलाएं सबसे पहले और अधिक पीड़ित हैं. यहां वह पीड़ा केवल शालिनी ‘पाठक’ सरीखी महिलाओं तक सिमटी नजर आती है. दलित तो लैला में परिदृश्य से बाहर ही नजर आते हैं, जबकि सिरीज में दक्षिणपंथ के सारे संकेतक भारतीय समाज के ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लिए गए हैं. हो सकता है कि लेखक-निर्देशकों का विचार हो कि दलितों को अतीत की तरह भविष्य में भी समाज और परिदृश्य से पूरी तरह बाहर कर दिया जाएगा. सीरिज बिना नाम लिए ब्राह्मणवाद की पहचान तो कराती है लेकिन शायद उस अपरकास्ट लिबरल उद्देश्य में चली जाती है जहां नायक हमेशा ब्राह्मण या प्रिविलेज्ड क्लास से होंगे और शोषितों को भी खलनायक दिखाया जाएगा. हालांकि भानु का किरदार है जो स्लम से विद्रोह संचालित कर रहा है, लेकिन उसकी आइडेंटिटी अस्पष्ट नजर आती है.
राजनीतिक संकेत और लैला
सिरीज में भारत में हाल में दिख रहे राजनैतिक-सामाजिक संकेत भरे पड़े हैं. आर्यावर्त के बाहर स्लम में जगह-जगह ‘हमें चाहिए आजादी’ जैसे नारे लिखे नजर आते हैं. महिलाओं को शुद्धि प्रक्रिया के तहत पुरुषों के जूठे भोजन पर लोटना पड़ता है. “जय आर्यावर्त” का उद्घोष करते हुए लोग एक महत्वपूर्ण इमारत को धमाकों से उड़ाते नजर आते हैं जो बाबरी मस्जिद विध्वंस की याद दिलाती है.
आर्यावर्त में बच्चों को डॉ. जोशी के कार्टून देखने दिया जाता है जिसमें जोशी के बचपन के कथित बहादुरी भरे कारनामे भरे पड़े हैं. मसलन जिस तरह वह बचपन में रेल की पटरी पर फंसे मवेशी, संभवतः गाय को वहां से हटाकर ट्रेन की चपट में आने से बचाता है. इसे देखते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उन कार्टून की याद आ जाती है, जिसमें वे बचपन में मगरमच्छों के बीच जाकर गेंद निकालते दिखाए गए हैं.
इस तरह दक्षिणपंथी की विचारधारा पर यह फिल्म अपने ढांचे में गंभीर टिप्पणी करती नजर आती है, खासकर भारत की हाल के वर्षों के सियासी माहौल पर. इस लिहाज से इसे हिम्मती राजनीतिक सिरीज करार दिया जा सकता है. लेकिन यह केवल अपर कास्ट और क्लास तक ही सिमटी नजर आती है. उन वंचित समुदायों की ओर उस तरह नहीं जाती, जो इस दक्षिणपंथ की विचारधारा के सबसे बड़े पीड़ित होते हैं. वह भी तब जब आर्यावर्त के सारी नियम-कायदे ब्राह्मणवादी व्यवस्था से बेहद मिलते-जुलते नजर आए हैं.
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