बीबीसी इंडिया में एक दलित पत्रकार की आपबीती, मीना कोतवाल की जुबानी – भाग 6

    मैंने दलितों और वंचितों पर उनके कई आर्टिकल देखे हैं. सोशल मीडिया पर भी वे वंचितों की आवाज़ बन कर कई मुद्दों पर लिखते रहते हैं. लेकिन जो सब वो लिखते थे और जैसा मैं उन्हें जान पा रही थी, वो उससे बिल्कुल मेल नहीं खा रहे थे.

    मीना कोतवाल

    मीना कोतवाल ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया युनिवर्सिटी और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन
    (आईआईएमसी) से पत्रकारिता की पढाई की है. उन्हें फीचर राइटिंग के लिए आईआईएमसी का एक्सीलेंस अवार्ड मिल चुका है. उन्होंने बीबीसी इंडिया में भी काम किया है, हाल ही में उन्हें वहां से हटा दिया गया है. मीना अपने अनुभव फेसबुक पर लिख रही हैं. पढ़ें उनकी आपबीती:

    मॉर्निंग मीटिंग में ज़्यादातर चर्चा स्टोरी आइडिया को लेकर होती है. अधिकतर स्टोरी राजेश प्रियदर्शी सर ही अप्रूव करते थे, जो बीबीसी हिंदी के डिजिटल संपादक हैं और मीटिंग में अधिकतर समय मौजूद होते थे.

    बीबीसी न्यूज़ (स्त्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स)

    मैं भी उस मीटिंग में स्टोरी आइडिया लेकर पहुंचती, लेकिन अधिकतर आइडिया रिजेक्ट कर दिए जाते. शुरू में जब मेरी स्टोरी रिजेक्ट होती तो मुझे लगता शायद मैं ही उस लेवल का नहीं सोच रही हूं, जो यहां का है. धीरे-धीरे स्टोरी कैसे पेश करनी है और कैसी स्टोरी होनी चाहिए, यह समझने की कोशिश कर रही थी.

    मैंने खुद के अंदर कई बदलाव भी लाए, हर दिन कुछ नया सोच कर जाती पर बात न बनती. रिजेक्शन अब तक एक सिलसिला बन चुका था. मुझे याद नहीं कि कोई एक भी स्टोरी राजेश सर ने बिना किसी किंतु-परन्तु के पास की हो. वो भी तब पास होती थी जब मीटिंग में मौजूद अन्य लोग उसके लिए सहमत होते थे. नहीं तो अधिकतर गिरा दी जाती.

    खैर, ये उनका संपादकीय अधिकार भी था. लेकिन सारे अधिकार मेरी स्टोरी पर ही आकर क्यों थम जाते थे!, पता नहीं.

    मैंने उसी मीटिंग में कुछ लोगों की अपना स्टोरी आइडिया पूरा बताने से पहले ही बिना किसी कमी के पास होते भी देखा है. वे उनकी स्टोरी ना सिर्फ़ पास करते थे बल्कि ये तक कह देते थे कि आप बता रही हैं तो स्टोरी अच्छी ही होगी और हमें जरूर करनी चाहिए.

    मुझे नहीं पता वो मुझे पसंद क्यों नहीं करते थे. मैंने दलितों और वंचितों पर उनके कई आर्टिकल देखे हैं. सोशल मीडिया पर भी वे वंचितों की आवाज़ बन कर कई मुद्दों पर लिखते रहते हैं. लेकिन जो सब वो लिखते थे और जैसा मैं उन्हें जान पा रही थी, वो उससे बिल्कुल मेल नहीं खा रहे थे.

    मेरे लिए उनकी आखों में एक नफ़रत या घृणा जैसा कुछ था. वे जब भी मुझे देखते अपनी नज़रे घुमा लेते थे. मैं अगर उन्हें हैलो या गुड मॉर्निंग जैसा कुछ कहूं तो वे नज़रअंदाज़ कर देते थे और जवाब ही नहीं देते थे. एक बार जब मैं सुबह की शिफ्ट में अपने डेस्क पर बैठकर काम कर रही थी तो मैंने उन्हें सुबह 9 बजे के करीब आते देखा और गुड मार्निंग कहा, लेकिन वे मुझे जवाब ना देकर आगे बढ़ गये और मेरे पीछे बैठी एक महिला कर्मी का नाम लेकर जोर से और खुशी के साथ कहते हैं, ‘गुड मॉर्निंग…’

    हो सकता है कुछ लोगों के लिए ये बहुत ही मामूली बात हो लेकिन ये मेरा मनोबल गिराने के लिए एक घुन की तरह काम कर रही थीं, जो मुझे अंदर ही अंदर खोखला कर रही थी.

    मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि कोई मुझसे इतनी नफ़रत क्यों कर रहा है, जबकि मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया था. मैं ऑफिस में एकदम अकेला सा महसूस करने लगी थी. सबसे कटने लगी थी. किसी से बात करने का मन नहीं करता था. समझ नहीं आ रहा था कि ये सब मैं किसे बताऊं और अगर किसी को बता भी दिया तो क्या मेरा कोई विश्वास करेगा! वे काफ़ी पुराने हैं यहां पर और मैं कुछ समय पहले ही आई थी.

    ये सब कोई पहली बार नहीं हुआ था, कई बार हो चुका था. लेकिन मुझे हर बार कई गुना बुरा लगता और फिर भी मैं उन्हें एक नई सुबह एक नए अभिवादन के साथ मिलती. लेकिन जब उनका जवाब मुझे उनकी फेर ली गई नज़रों में दिख जाता तो मैं हर बार की तरह खामोश हो जाती और निराशा से भर जाती.

    To be continued…

    इस सीरिज का भाग 1, भाग 2, भाग 3, भाग 4 और भाग 5 यहां पढ़ें

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