कश्मीर में पिछले 72 वर्षों से चले आ रहे हिंदुस्तानी औपनिवेशिक कब्ज़े की परियोजना ने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को खत्म करने के साथ ही एक विध्वंसक नया मोड़ ले लिया. हिंदुस्तानी हुकूमत की दीर्घकालिक परियोजना कश्मीर को एक हिन्दू-बहुसंख्यक राज्य में तब्दील करने की है.
हफ़्सा कंजवल

कश्मीर में पिछले 72 वर्षों से चले आ रहे हिंदुस्तानी औपनिवेशिक कब्ज़े की परियोजना ने 5 अगस्त को एक विध्वंसक नया मोड़ ले लिया.
हिंदुस्तान के गृह मंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त की सुबह संसद को सूचना दी कि राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार अनुच्छेद 370 को निरस्त किया जा रहा है. हिंदुस्तानी संविधान में इस अनुच्छेद के ज़रिए जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ था. हिंदुस्तान के आरंभिक नेतृत्व ने अपने एकमात्र मुस्लिम-बहुसंख्यक राज्य, जम्मू-कश्मीर को कुछ हद तक स्वायत्तता प्रदान करने के लिए इस अनुच्छेद को स्थापित किया था. हक़ीक़त तो यह है कि राज्य के अवाम की मर्ज़ी के बगैर उसे हिंदुस्तान में मिला लिया गया था, जबकि वहां की अवाम शायद आज़ादी या फिर पाकिस्तान के साथ अपना भविष्य चुनती.
कई हिंदुस्तानी इतिहासकारों और क़ानूनी विशेषज्ञों के मुताबिक राष्ट्रपति का आदेश वास्तव में असंवैधानिक है. हिंदुस्तान और इस विवादित क्षेत्र के बीच अगर कोई क़ानूनी संबंध है तो वह सिर्फ़ अनुच्छेद 370 है और इसे तभी रद्द किया जा सकता है जब जम्मू-कश्मीर की संविधान-सभा (जो 1956 में ही भंग कर दी गई थी) एक साथ इसकी स्वीकृति दे.
लेकिन हिंदुस्तानी नीति में आए इस परिवर्तन को राज्य में क्रूर सैन्य कार्यवाही के ज़रिए बलपूर्वक लागू किया गया, जो पहले से ही दुनिया के सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में शामिल है. हिंदुस्तान ने कश्मीर में 35,000 अतिरिक्त सैनिकों को तैनात कर दिया है. उसने सैलानियों, अमरनाथ तीर्थयात्रियों और पत्रकारों को राज्य से वापस जाने का आदेश दे दिया और सख़्त कर्फ़्यू लगा दिया. न केवल कश्मीर की आज़ादी की हिमायत करने वाले नेताओं बल्कि हिंदुस्तानी शासन के वफ़ादार नेताओं को भी गिरफ़्तार कर लिया गया. अपने भविष्य से जुड़े कई सवालों से घिरे कश्मीरी बीते कई दिनों से अपनी ज़िंदगी डर और अस्थिरता में गुज़ार रहे हैं. और जब अनुच्छेद 370 ख़त्म करने की घोषणा की जा रही थी तब भी कश्मीरियों को अंधेरे में रखा गया क्योंकि संचार-व्यवस्था को पूरी तरह बंद कर दिया गया था और टेलीफोन तथा इंटरनेट की सभी सेवाएं बंद कर दी गईं.
क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इस तरह काम करता है?
यह क़दम इस बात का पुख़्ता सबूत है कि हिंदुस्तान कितनी तेज़ी से एक तानाशाह राष्ट्र में बदलता जा रहा है, जिसे सिर्फ़ अपने राज्य के विस्तार और सत्ता हासिल करने से मतलब है. फिर चाहे वह अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों और अपने ख़ुद के संविधान के उल्लंघन की बुनियाद पर ही क्यों न हो.
अनुच्छेद 370 खत्म करने की यह घोषणा कश्मीर में स्थापित की गयी हिंदुस्तानी साम्राज्यवादी योजनाओं के लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश है. ख़ासतौर पर हिंदुस्तान की दक्षिणपंथी विचारधारा वाली हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टियां देश के बंटवारे के समय से ही कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को रद्द करने और इसे पूरी तरह से हड़प कर हिंदुस्तान के अधीन करने की मांग करती रही हैं. यह पल कश्मीर में चले आ रहे उपनिवेशी कब्ज़े के पूरे सच को उजागर कर रहा है.
पिछले सात दशकों से हिंदुस्तान ने कश्मीर की राजनैतिक आकांक्षाओं को कुचलने का हर संभव प्रयास किया है और झूठ का सहारा लिया है. इंडियन नेशनल कांग्रेस को जब कश्मीर में अपनी डांवाडोल स्थिति का एहसास हुआ तो स्वायत्तता का ख़िलौना देकर उसने आज़ादी-समर्थक आकांक्षाओं को बहलाने की कोशिश की. कई वर्षों तक लोकतांत्रिक चुनावों (जिनमें से ज़्यादातर चुनावों में धांधलेबाज़ी हुई), विकास या पाकिस्तानी हस्तक्षेप का हवाला देकर यह खेल चलता रहा. फ़िर 9/11 के बाद यह कहा गया कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ विश्वव्यापी लड़ाई में कश्मीर की आज़ादी का संघर्ष भी शामिल है, जिसका मुकाबला हिंदुस्तान अपने सहयोगी देशों के साथ आंतरिक रूप से कर रहा है. आज जब हाल ही में मिली चुनावी जीत के नशे में चूर दक्षिणपंथी हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार सत्ता में है, तो सभी नक़ाब उतर गए हैं.
अब सवाल यह उठता है कि अगर हिंदुस्तान ने धीरे-धीरे कश्मीर की स्वायत्तता को नष्ट कर दिया है तो उसके इस क़दम का क्या महत्व है? हिन्दुस्तान के संविधान में एक और प्रावधान अनुच्छेद 35 ए है जो स्थानीय कश्मीरी राज्य को यह तय करने का अधिकार देता है कि उसके “स्थायी निवासी” कौन हैं. ये स्थायी निवासी राज्य की संपत्ति के मालिक हो सकते हैं या ज़मीन ख़रीद सकते हैं. कश्मीर के मुस्लिम-बहुसंख्यक दर्जे को बचाये रखने के लिए हिंदुस्तानी सत्ता-समर्थक स्थानीय नेताओं ने इसी शर्त पर ज़ोर दिया था. यही वह आख़िरी चीज़ भी थी जिसके ज़रिए कश्मीरी अपने राष्ट्रीयता के रूप को थोड़ा संरक्षित किये हुए थे.
मगर अब यह सब बदल दिया गया है. अब हिंदुस्तानी कश्मीर में संपत्ति और ज़मीन ख़रीद सकते हैं और कश्मीरियों को ही बाहर निकाल सकते हैं.
सबसे ज़्यादा चिंताजनक यह है कि इस ग़ैर-संवैधानिक क़दम ने कश्मीर में बाहरियों को स्थापित करके उसे स्थायी-उपनिवेश बनाने की भयावह परियोजना की शुरुआत कर दी है, बिल्कुल जैसा इजराइल फ़लस्तीनी क्षेत्रों में करता आ रहा है. यह याद दिलाना ज़रूरी है कि हिंदुस्तान ने कश्मीर में पहले से ही करीब आठ लाख से ज़्यादा सैनिकों को तैनात कर रखा है, जिन्होंने अपने कैंटोनमेंट कैम्प और बंकर बनाकर वहां विशाल भू-भाग पर कब्ज़ा जमा लिया है. लेकिन अब सत्ताधारी पार्टी अपनी दीर्घकालिक योजना के मुताबिक वहां इतने हिन्दू उपनिवेशी बेड़े बसा सकती है कि आज़ादी की मौजूदा मुस्लिम-बहुसंख्यक राजनैतिक आकांक्षाओं को पूरी तरह रौंद दिया जाए.
उनका प्रमुख उद्देश्य यह है कि कश्मीर की जनसांख्यिकी ढांचे को बदल दिया जाए और उसे मुस्लिम-बहुसंख्यक राज्य से एक हिन्दू-बहुसंख्यक राज्य में तब्दील कर दिया जाए. इस प्रक्रिया में नस्लीय नरसंहार हो सकते हैं.
आने वाले कुछ हफ़्तों में कश्मीर में हालात काफ़ी गंभीर होने वाले हैं. कश्मीरी आसानी से घुटने नहीं टेकेंगे और वे प्रतिरोध करेंगे. ख़ून-ख़राबे का यह सिलसिला चलता रहेगा क्योंकि हिन्दुस्तानी बंदूकें कश्मीरी प्रदर्शनकारियों पर गोलियां/पेलेट बरसाएंगी.
यह ऐसा सबक है जो हिंदुस्तान इतने वर्षों में नहीं सीख पाया है. जिस तरह ब्रिटिश हुकूमत को एक दिन आज़ादी की आग में ख़ाक होना पड़ा, ठीक उसी तरह क्रूरता और बेरहमी से भरे इस जबरन औपनिवेशिक कब्ज़े को प्रतिरोध की मार झेलनी पड़ेगी. सत्तर वर्षों से चली आ रही जिस औपनिवेशक परियोजना और निर्मम कब्ज़े का कश्मीरियों ने दृढ़ता से सामना किया है, जिससे हिम्मत से लड़ा है उसके ख़िलाफ़ आज़ादी की तमन्ना और बुलंद हो जाएगी.
हफ़्सा कंजवल लाफ़या कॉलेज में साउथ एशियन हिस्ट्री की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. यह आलेख वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित हुआ है और लेखिका की अनुमति से द मार्जिन में इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया गया है. यह अनुवाद शिवांगी मरियम शर्मा ने किया है.
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